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तृष्णा को समझो
कल किसी ने पूछा था कि आप मूल कथा में से कभी-कभी कुछ छोड़ देते हैं, कभी कुछ जोड़ देते हैं।
कारण से ऐसा करता हूं। मूल कथा में तो कहा है : किसी स्त्री के गुह्य स्थान को देखकर...। मैंने उसे छोड़ दिया। वह अभद्र मालूम होता है। ___ जो किसी स्त्री के गुह्य स्थान को देखकर महाकाश्यप को छोड़ दिया, वह भूल ही गया महाकाश्यप को। जैसे कोई मल-मूत्र के कीड़े को सोने के सिंहासन पर बिठा दे, और फिर मल-मूत्र को देखकर वह सोने के सिंहासन से सरक जाए, वापस गिर जाए अपनी नाली में, अपने कीचड़ में ऐसा कुछ हुआ।
वह भूल ही चुका था। शिष्य भूल सकता है, लेकिन गुरु नहीं भूल सकता। जन्मों-जन्मों के बाद भी गुरु पहचान लेगा।
जीसस ने कहा है : जन्मों-जन्मों के बाद भी मैं तुम्हें पहचान लूंगा। उस आखिरी दिन भी मैं तुम्हें पहचान लूंगा, जिस दिन परमात्मा के सामने निर्णय होगा। जो मेरे हैं, उन्हें मैं पहचान लूंगा।
ठीक कहा है। शिष्य भूल सकता है। शिष्य की स्मृति कितनी! गुरु कैसे भूल सकता है ? गुरु की स्मृति पूर्ण हो गयी है। शिष्य पर तो जो खिंचता है, वह पानी पर खींची लकीर जैसा है। अभी बना, अभी गया! बना भी नहीं और गया। एक कान से गया, दूसरे कान से निकल गया। गुरु तो जैसे हीरे पर खींची गयी लकीर है।
वह तो उन्हें भूल ही चुका था। महाकाश्यप को आते देखकर उसे कुछ दिखायी ही न पड़ा। वह तो अपनी जंजीरों में बंधा, अपनी भवतृष्णा से परेशान; सोचता जा रहा होगा कि अब फांसी लगने वाली है। कैसे बचें? क्या करूं? कैसे भाग जाऊं? रिश्वत खिलाऊं? या कि मरना ही पड़ेगा? वह तो हजार चिंताओं में घिरा होगा। उसके आस-पास तो बहुत बादल रहे होंगे। उसका सूरज तो बिलकुल ढंका रहा होगा। उसे कहां फिक्र कि कौन रास्ते पर गुजर रहा है!
तुम भी समझो तुम्हें फांसी लग रही हो, तो तुम रास्ते पर देख पाओगे कि कौन गुजरा, किसने जयरामजी की? कुछ नहीं दिखायी पड़ेगा। कोई तुम्हें कह दे कि तुम्हारे घर में आग लगी है, फिर तुम भागोगे दुकान से। फिर रास्ते में कौन मिला, कौन नहीं मिला-तुम फिर फिकर न करोगे। याद भी न आएगी। दूसरे दिन अगर कोई पूछे कि कल कहां भागे जाते थे? मैंने जयरामजी की, तो आपने उत्तर भी न दिया!तुम कहोगेः छोड़ो भी भाई! घर में आग लगी थी। जयरामजी का उतर देने के लिए वहां था कौन! मेरे प्राण तो घर में पहुंच चुके थे, देह ही थी। मुझे कुछ दिखायी नहीं पड़ा।
यह तो भिक्ष-पतित भिक्ष-फांसी के लिए ले जाया जा रहा है। लेकिन महाकाश्यप ने उसे पहचान लिया। महाकाश्यप उसके पास गए।
शिष्य कितना ही भटके और कितना ही दूर चला जाए, गुरु की करुणा में कोई अंतर नहीं पड़ता। पड़ जाए अंतर, तो वह गुरु गुरु नहीं। फिर वह साधारणजन है। वह