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________________ धम्मपद का पुनर्जन्म दो। आनंद से नाच उठा कि धन्य है! ऐसा सुख मुझे कभी नहीं हुआ था। यह बात ही इतना सुख दे रही है! जाकर सब निकाल दिया। पांच-सात दिन बाद धर्मगुरु आया। उसने कहाः कहो! उसने कहा : बड़ा आनंद है गुरुदेव! ऐसी सुख की राहत की सांस कभी जिंदगी में न ली थी। और कमरा इतना बड़ा मालूम पड़ता है ! और काफी जगह है। दो-चार मेहमान आ जाएं, तो कोई अड़चन नहीं है। आपने भी आंखें खोल दीं! अक्सर ऐसा हो जाता है : बड़े दुख के बाद छोटा सा सुख बड़ा मालूम होता है। और बड़े सुख के बाद छोटा सा दुख बड़ा मालूम होता है। ‘आप कहते हैं, सुख की खोज में से ही दुख निकलता है।' ___ हां, सुख की खोज में से दुख निकलता है। क्योंकि तुम दुख को नहीं खोजते; तुम दुख को नहीं खोदते। तुम दुख को नहीं निरीक्षण करते। और दौड़े चले जाते हो। सुख की चीख-पुकार मचाए रखते हो और दुख तुम पैदा करते चले जाते हो। ___ज्ञानी वह है, जो सुख की तो फिकर नहीं करता है, जो दुख का निरीक्षण करता है, जो दुख के राज खोजता है कि क्यों दुख है? किस कारण दुख है? क्या आधार है दुख का? और जैसे-जैसे दुख की समझ बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे आधार गिरते जाते हैं। क्योंकि तुम्हीं तो पैदा कर रहे हो उन्हें। तुम्हीं अपना दुख पैदा कर रहे हो। तुम अपने हाथ हटाते जाते हो। जहां-जहां समझ आ गयी, वहां-वहां हाथ हट जाता है। और जहां दुख नहीं पैदा होता, वहीं सुख पैदा होता है। सुख अलग से खोजने की जरूरत नहीं है। उसी खोज में अड़चन है। दुख का यही तो उपयोग है कि अगर तुम उसे समझ लो, तो सुख हो जाए। अगर पूरा समझ लो, तो आनंद हो जाए। दर्द भी जरूरी है। माटी की भूख जगी माटी की ही प्यास जीते रहे प्राणों को अनछुए अहसास आंगन की गंधों में सिमट आयी दूरी है। दर्द भी जरूरी है। खामोशियां भरती रहीं छंदों में रंग दर्पण ने कर डाले सब सपने बदरंग बिना जिए, बिना मरे 65
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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