________________
तृष्णा
की जड़
जागकर चलना होगा। ___ इस तरह बुद्ध ने कहाः ये छत्तीस द्वार हैं, जो बहाते हैं। जो तुम्हें प्रतिपल पुकार रहे हैं : आ जाओ, बाहर आ जाओ। और यह जो लता है बिना जड़ की, यह बढ़ती चली जाती है, फैलती चली जाती है।
सवन्ति सब्बधि सोता लता उभिज्ज तिट्ठति। तञ्च दिस्वा लतं जातं मूलं पञ्जाय छिन्दथ।।
___ 'ये स्रोत सभी तरफ बहते हैं। लता फूटकर निकलती है। उसी फूटी हुई लता को देखकर उसके मूल को प्रज्ञा से काट डालो।'
तो बुद्ध कहते हैं : ये सात मूल, सात अनुशय हैं, इन्हें काटोगे कैसे? किस कुल्हाड़ी से काटोगे? प्रज्ञा की कुल्हाड़ी से।
प्रज्ञा का अर्थ होता है: जागरूकता, अवेयरनेस। प्रज्ञा का अर्थ होता है: प्रतिपल होशपूर्वक जीना; एक क्षण को भी बेहोशी में न करना कुछ। राह चलो, तो ऐसे चलना, जागे हुए। भोजन करो, तो जागे हुए। बोलो, तो जागे हुए। क्रोध, लोभ, मोह-कुछ भी आए, तुम जागे हुए रहना। _ और एक अपूर्व घटना घट जाती है। जागरण के साथ ही जो तुम्हारे शत्रु हैं, तुम्हारे पास आने बंद हो जाते हैं। और जो तुम्हारे मित्र हैं, वही आते हैं। जागरण के साथ घृणा खो जाती है, प्रेम बचता है। मूर्छा में प्रेम खो जाता है, घृणा बचती है। जागरण में क्रोध खो जाता, करुणा बचती है। मूर्छा में करुणा खो जाती, क्रोध बचता है।
बुद्ध ने कहा है : जैसे किसी घर में दीया जला हो और घर का मालिक जगा हो, तो चोर उस घर की तरफ नहीं आते। पहरेदार सजग हों; घर में दीया जला हो; खिड़कियों से रोशनी बाहर आती हो और मालिक चलता-फिरता हो, तो चोर उस तरफ नहीं आते। दूर-दूर रहते हैं।
. मालिक सोया हो; घर का दीया बुझा पड़ा हो; घर में गहन अंधकार हो; पहरेदार शराब पीकर पड़ा हो; फिर चोरों के लिए निमंत्रण है। तुमने खुद ही निमंत्रण भेज दिया! फिर चोर न आएं, तो क्या करें! चोरों को कसूर मत देना। चोरों को दोषी मत ठहराना। तुम ही दोषी हो।
ऐसी ही मन की दशा है। जब मन में होश का दीया जगा होता है, जब तुम्हारा ध्यान पहरे पर बैठा होता है, जब तुम्हारा मालिक शराब पीकर खोया नहीं रहता, मूर्छा में डूबा नहीं रहता...।
और शराबें बहुत तरह की हैं। अहंकार की शराब है; उसको पीकर कपिल नाम का भिक्षु महापंडित था, लेकिन गिरा–गर्त में गिरा। भयंकर दुर्गंध वाली मछली हुआ। सुख भी शराब है; उसको पीकर राजकुमारी, जो देवलोक पहुंच गयी थी, वहां
31