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एस धम्मो सनंतनो
चौथा प्रश्नः
जीवन निरर्थक मालूम होता है। मैं संन्यास भी लेना चाहता हूं। लेकिन समाज का भय लगता है-और रुक जाता हूं। फिर जीवन की अर्थहीनता को देखकर आत्मघात का विचार भी बार-बार आता है। आत्मघात के संबंध में आप क्या कहते हैं?
भा ई विचार तो बड़ा ऊंचा है! मगर जब संन्यास तक लेने की हिम्मत नहीं है, तो
आत्मघात कैसे करोगे? इतना साहस तुम जुटा न पाओगे। आत्मघात के लिए कुछ साहस चाहिए। संन्यास का ही साहस नहीं हो रहा है!
और संन्यास में तो मृत्यु नहीं होने वाली है अभी एकदम से; सिर्फ जीवन की शैली थोड़ी बदलेगी। और मेरे संन्यास में वह भी इतनी सुविधा से बदलती है, इतने आहिस्ता बदली जाती है कि तुम्हें कभी पता भी नहीं चलता है कि कब बदलाहट हो गयी। और तुम तो अभी संन्यास लेने में डर रहे हो।
कहते हो, 'समाज का भय लगता है।'
तो आत्मघात में तो बहुत भय लगेंगे। लोग क्या कहेंगे तुम्हारे मर जाने के बाद! कि आत्मघात कर लिया; कायर था। और फिर यह भी भय लगेगा कि आत्मघात के बाद क्या होगा! शरीर छूट गया—फिर भूत बनूं; प्रेत बनूं! नर्क जाना पड़े! महा रौरव नर्क में पड़ना पड़े! कि मरघटों पर रहना पड़े! कि झाड़ों पर बैठना पड़े! फिर क्या होगा-पता नहीं! वे सब भय भी तुम्हें पकड़ेंगे।
विचार तो बड़ा ऊंचा है! बड़ी पहुंची बात ले आए! दूर की कौड़ी खोज लाए। मगर कर न सकोगे। और फिर जमाना भी खराब है। सतयुग होता, बात और थी।
मैंने सुना है : एक आदमी आत्मघात करना चाहता था। जहर खरीदकर लाया। पीकर सो गया निश्चित कि मर गए। सुबह सोचता था कि अब देखें, कहां आंख खुलती है! नर्क में कि स्वर्ग में? लेकिन वही पत्नी की आवाज सुनायी पड़ने लगी! वही दूध वाला दरवाजे पर खटक रहा। बच्चे स्कूल जाने की तैयारी कर रहे हैं। बस्ता गिर गया। किसी की स्लेट फूट गयी। किसी का कुछ...।
बड़ा हैरान हुआ! आंखें खोली कि मामला क्या है! न कोई स्वर्ग, न कोई नर्क! वही का वही घर। आंखें साफ करके गौर से देखा, वही कमरा! खिड़की के बाहर देखा, वही झाड़! उठकर बाहर गया। देखा, वही पत्नी! उसने कहा : मामला क्या है! जहर लाया था इतना कि साधारणतः जितने से आदमी मरे, उससे तीन गुना!
भागा हुआ दुकानदार के पास पहुंचा। कहाः हद्द हो गयी। दुकानदार ने कहा कि भई! हम भी क्या करें! जमाना खराब है। हर चीज में मिलावट चल रही है! शुद्ध जहर आजकल मिलता कहां है ?
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