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एस धम्मो सनंतनो
____ मैं अकेला हूं; मैं अकेला हूं-ऐसा श्वास-श्वास में रम जाए। मैं अकेला हूं-ऐसा हृदय की धड़कनों में बस जाए। मैं अकेला हूं-यह बात इतनी प्रगाढ़ होकर बैठ जाए कि कभी भूले न, क्षणभर को न भूले। यही संसार से मुक्ति है।
यह नहीं कि तुम पत्नी को छोड़कर जाओ। यह जानना कि मैं अकेला हूं। पत्नी है, तो रहे। बेटे हैं, तो रहें। घर है, तो रहे। लेकिन मैं अकेला हूं। भरे घर में तुम अकेले हो जाओ। भरी भीड़ में तुम अकेले हो जाओ। यह सारा संसार चल रहा है और मैं अकेला हूं-यह एकांत की भाव-भंगिमा है। ___ और जब अकेला हूं, तो बोलना क्या है! किससे बोलना है? क्या बोलना है? तो एक चुप्पी अपने आप उतरने लगे।
' और जब चुप ही होने लगे, तो भीतर भी क्या सोचना? आदमी को बोलना होता है, तो सोचता है। बोलमा तभी होता है, जब सोचता है कि दूसरे हैं। ये सब जुड़ी हैं बातें। इन सबकी श्रृंखला है।
आदमी सोचता है, क्योंकि बोलना है। बोलता है, क्योंकि दूसरों से जुड़ना है। जब दूसरों से जुड़े ही नहीं हैं हम, और जुड़ सकते ही नहीं हैं हम, तो बोलना क्या? फिर सोचना क्या!
और ये तीन बातें पूरी हो जाएं—एकांत, मौन और ध्यान तो फिर जो शेष रह जाती है दशा, समाधि। तब सम हो गए। शून्य प्रगट हुआ।
इस शून्य की खोज में लग गया धम्माराम। भिक्षुओं ने शिकायत भगवान से की। भिक्षुओं के अहंकार को चोट लगी होगी। उनकी जयरामजी का भी जवाब नहीं देता! अकड़ गया!
जो जैसे होते हैं, उनको वैसा ही दिखायी पड़ता है। यह बड़ी मुश्किल है। जो अहंकारी हैं, उनको हर एक में अहंकार दिखायी पड़ता है। जो चोर हैं, उनको हर एक में चोर दिखायी पड़ता है।
__ अब यह आदमी ठीक दिशा में चल पड़ा, तो उन गलत दिशा में चलते हुए भिक्षुओं को यह आदमी अड़चन मालूम होने लगा।
शिकायत भगवान से की। भगवान ने धम्माराम को बुलाया। पूछा : तुझे क्या हुआ? क्या सत्य है यह कि तू भिक्षुओं से बोलता नहीं?
भंते! सत्य है। उसने कहा। ऐसा क्यों कर रहा है?
तो धम्माराम ने अपनी सारी मनोदशा कही। उसे सुनकर भगवान ने उसे धन्यवाद दिया। और कहा : तू ठीक कर रहा है। तू ही ठीक कर रहा है धम्माराम। तू ही कर रहा है वह, जो करने योग्य है, जो करना चाहिए। अन्य भिक्षुओं को भी, जिन्हें मुझ पर प्रेम हो, धम्माराम के समान ही होना चाहिए। क्योंकि बुद्धों से प्रेम करना हो, तो यह साधारण ढंग का प्रेम नहीं है। इस प्रेम की अपनी शैली है। इस
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