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________________ समाधि के सूत्र : एकांत, मौन, ध्यान और दूसरा कहता होगाः इसमें क्या रखा है! असली बात तो जिह्वा है। जीभ पर नियंत्रण चाहिए। मुझे देखो! न नमक लेता हूं; न शक्कर लेता हूं; न घी लेता हूं; न यह लेता हूं, न वह लेता हूं। रूखा-सूखा खाता हूं। असली चीज तो जिह्वा है। रूप का स्वाद तो तब पैदा होता है, जब आदमी चौदह साल का हो जाता है। जीभ का स्वाद तो जन्म के पहले दिन ही पैदा हो जाता है। रूप का स्वाद तो आदमी बूढ़ा होने लगता है, तो समाप्त हो जाता है। लेकिन जीभ का स्वाद तो मरते दम तक साथ रहता है। तो जो जीभ पर नियंत्रण करता था, वह कहता था कि देखो, पहले दिन से लेकर आखिरी दिन तक, झूले से लेकर कब्र तक जो चीज चलती है, वह ज्यादा दुष्कर है। रूप तो आता है और चला जाता है। कोई नाक पर नियंत्रण कर रहा था-गंध पर। कोई कान पर नियंत्रण कर रहा था-ध्वनि पर। कोई शरीर पर नियंत्रण कर रहा था-स्पर्श पर। सब अपनी दलीलें दे रहे होंगे। .. जो स्पर्श की दलील दे रहा था, वह कह रहा होगा कि ठीक है; बच्चा पैदा होता है, तब दूध पीता है। लेकिन बच्चे को स्पर्श का आनंद तो मां के गर्भ में ही आना शुरू हो जाता है। वहीं दोनों की देहें स्पर्श करती हैं। और यह स्पर्श की आकांक्षा जीवनभर बनी रहती है। एक शरीर से दूसरे शरीर के स्पर्श में जो ऊष्मा मिलती है, जो गर्मी मिलती है, उसका रस सदा बना रहता है। ऐसे उनमें विवाद चलता होगा। यह विवाद संवर के कारण तो हो ही नहीं सकता। यह विवाद इसीलिए हो रहा है कि सभी ने नियंत्रण किया है। और जिसने नियंत्रण किया है, वह यह कहना चाहता है कि मेरा नियंत्रण तुझसे बड़ा है। और स्वभावतः मेरा नियंत्रण तुझसे कठिन है, तुझसे बड़ा है, इसलिए मैं तुझसे बड़ा हूं। यह अहंकार उसमें भीतर होगा। अगर त्यागी अहंकारी हो, तो समझना कि त्यागी नहीं है। अगर त्यागी निरअहंकारी हो, तो ही त्यागी है। और निरअहंकारी त्यागी मिलना ही मुश्किल है। क्योंकि निरअहंकारी त्यागी नहीं होता है, न भोगी होता है-मध्य में खड़ा हो जाता है। उसकी घड़ी रुक गयी; उसका पेंडुलम ठहर गया। वह सम को उपलब्ध हो जाता है। दुनिया में तीन तरह के लोग हैं : भोगी, त्यागी; और दोनों के मध्य में मैं रखता हूं संन्यासी को, क्योंकि वह शब्द भी सम से ही बनता है। संन्यासी को मैं त्यागी नहीं कहता। और संन्यासी को मैं संसारी भी नहीं कहता। इसलिए मैं अपने संन्यासी को नहीं कहता कि तुम संसार छोड़ो और त्यागी बन जाओ। मैं उनसे कहता हूं : तुम सम्यक्त्व को उपलब्ध हो जाओ। तुम जहां हो, वहीं रहो। वहीं तुम्हारी तराजू को सम्हाल लो। उलटे जाने की कोई भी जरूरत नहीं है। 297
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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