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समाधि के सूत्र : एकांत, मौन, ध्यान
संवर होता, तो दृष्टि खुल गयी होती। विवाद कैसे उठता? संवर होता, तो अनुभव हो गया होता। संवर होता, तो बुद्ध के पास जाने की जरूरत न थी। संवर होता, तो बुद्ध स्वयं भीतर आ गए होते; बुद्धत्व पास आ गया होता। संवर नहीं था।
सुना होगा बुद्ध को–कि साधो इंद्रियों को। जागो इंद्रियों से। होश को सम्हालो। संवर में उतरो। संयमी बनो। ऐसा बार-बार सुना होगा। रोज बुद्ध यही कहते थे। क्योंकि इसी से दुखमुक्ति होने वाली है। समता को उपलब्ध हो जाओ, तो दुख के पार हो जाओगे। समता के पाते ही संसार के पार हो जाओगे। वही मोक्ष है। ___तो बुद्ध की मोक्ष के संबंध में कही प्यारी बातों ने मन में लोभ जगाया होगा।
और बुद्ध के नर्क के विवेचन ने मन में भय जगाया होगा। बुद्ध की बात सुनकर हेतु पैदा हुआ होगा, स्वार्थ पैदा हुआ होगा—कि ठीक! यही बात करने जैसी है। मगर समझ न जगी होगी; बोध न जगा होगा। बुद्ध की बात सुन तो ली होगी, समझ में न आयी होगी।
सुन लेना एक, समझ लेना बिलकुल और बात है। सुन तो सभी लेते हैं; समझता कौन है! समझता वही है, जो सुनी गयी बात पर प्रयोग करता है। और प्रयोग जबर्दस्ती नहीं करता, सहज-स्फूर्तता से करता है। प्रयोग हेतु से भरे नहीं होते। अगर हेतु से भरे हैं, तो उनको प्रयोग नहीं कहा जा सकता।
जैसे तुमने मोक्ष पाने के लिए सोचा कि चलो, भोजन का त्याग कर दें, मोक्ष मिलेगा। तो यह प्रयोग नहीं हुआ। यह लोभ ही हुआ। एक नया लोभ हुआ। तुमने सोचा कि चलो, नर्क में जाने से बचना है, इसलिए सुंदर स्वाद का त्याग कर दो; कि संगीत का त्याग कर दो; कि सुख का त्याग कर दो; नहीं तो नर्क में सड़ना पड़ेगा। यह तो भय हुआ, यह संवर नहीं हुआ।
संवर न तो लोभ जानता, न भय जानता; संवर हेतु ही नहीं जानता। संवर अहेतुक है। जीवन को समझने के लिए किया जाता है। किसी और प्रयोजन से नहीं; निष्प्रयोजन है। . तो ये भिक्षु एक-एक इंद्रिय को साधते थे। कोई भोजन पर नियंत्रण कर रहा था; कोई रूप पर; कोई ध्वनि पर। कोई आंख को झुकाकर चलता था, ताकि रूप दिखायी न पड़ जाए।
अब जो आंख झुकाकर चलता है, वह रूप पर कभी भी संवर न पा सकेगा। संवर पाने के लिए अगर आंख झुका ली, तो यह तो भय ही हुआ। संवर तो तब उपलब्ध होता है, जब रूप को कोई पूरी खुली आंख से देखे और भीतर कोई भाव न उठे; भीतर निर्भाव दशा रहे। रूप को गौर से देखे और रूप से मुक्त हो जाए-उसी देखने में, उसी दर्शन में तो संवर। सुंदर स्त्री सामने से गुजरे; स्त्री गुजर जाए, मन में कुछ न गुजरे। मन जैसा था, वैसा का वैसा रहे; जैसे कोई गुजरा ही नहीं, तो संवर।
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