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________________ भीतर डूबो सो रहे हैं छांह नभ की स्वप्न तेरे ओ चितेरे। अब न कोई साथ मेरे। है करुण इतिहास मत पूछो, अरे बुझती शमा का चांदनी का सुख, न अंतर जानता काली अमा का रात के आंसू उषा का हास चुन लेता सबेरे! अब न कोई साथ मेरे। आज नहीं कल, जो बाहर की तरफ आंख लगाए बैठा रहा, अनुभव करेगाः अकेला छूट गया। अकेला रहा, अकेला रह गया। भीतर चलो। अपने में उतरो। और वहां तुम पाओगे उसे, जिसकी तलाश है। पूछा तुमने : 'मैं किस बात की प्रतीक्षा कर रहा हूं, वह मुझे भी पता नहीं है। इतना ही ज्ञात है कि प्रतीक्षा है। लेकिन कभी कुछ घटता नहीं!' तुम बाहर देख रहे हो, वहीं तुम्हारी अड़चन है। इस दृष्टि को भीतर लौटाना जरूरी है। आंखें बंद करके देखना शुरू करो। और तुम्हें सावधान कर दूं : पहले अंधेरा ही अंधेरा मिलेगा। और पहले धुआं ही धुआं आंखों में भरेगा। लेकिन सतत अगर तुम भीतर देखते रहे, तो धुआं भी छंट जाएगा, अंधेरा भी कट जाएगा। और एक दिन तुम पाओगे : एक अपूर्व प्रभा, एक अपूर्व आभा! - एक ऐसा दीया जलता हुआ पाओगे—बिन बाती बिन तेल। फिर जो कभी नहीं बुझता। उसे परमात्मा कहो, उसे आत्मा कहो, सत्य कहो, जो तुम नाम देना चाहो दो। लेकिन वही है-अनाम—जिसकी तलाश हो रही है। बाहर बहुत खोज चुके, अब भीतर आओ। राबिया-एक मुसलमान फकीर-अपने घर में बैठी है, झोपड़े में। और उसके घर एक हसन नाम का फकीर आकर ठहरा है। वह उठा। सुबह का सूरज निकल रहा है। सुंदर है सुबह। पक्षी कलरव कर रहे हैं। वृक्षों से सूरज की किरणें उतर रही हैं। आकाश में शुभ्र बादल तैर रहे हैं। सुबह बड़ी शांत है, और ताजी है, और बड़ी प्यारी, और बड़ी सुंदर है। और हसन ने जोर से पुकारा ः राबिया! तू भीतर बैठी क्या करती है! बाहर देख, परमात्मा ने कितनी प्यारी सुबह को जन्म दिया है! उसने तो ऐसा ही कहा था। राबिया को बाहर बुलाना चाहा था। लेकिन राबिया ने जो उत्तर दिया, वह कुछ शाश्वत उत्तरों में से एक उत्तर बन गया। ऐसे ही उत्तरों से शास्त्र बनते हैं। राबिया ने कहा ः हसन! तुम भी पागल हुए! तुम भीतर आओ बजाय मुझे बाहर 279
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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