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भीतर डूबो
लेकिन धीरे-धीरे टकराहट भी कम हो जाएगी, राह भी बनेगी, अंधेरा भी... । आंखें राजी हो जाएंगी, तो अंधेरे में भी थोड़ा-थोड़ा दिखायी पड़ने लगेगा।
तुमने देखा न, चोर जो रात को चोरियां करते हैं, वे तुम्हारे घर में अंधेरे में इतनी सुविधा से चल लेते हैं, जितना तुम रोशनी में भी नहीं चलते। तुम रोशनी में भी कभी दरवाजे से टकरा जाते, कभी टेबल से टकरा जाते। कभी यह गिर जाता, कभी वह गिर जाता। और चोर रात को दूसरे के घर में आता है और रास्ता बना लेता है अंधेरे में। बिजली भी नहीं जला सकता है, टार्च भी नहीं जला सकता है। और घर भी दूसरे
का है। शायद कभी आया भी न हो। यह पहली दफा आना हआ हो, इस घर में। फिर भी रास्ता बना लेता है! और तुम्हारी तिजोड़ी तक भी पहुंच जाता है। तिजोड़ी भी खोल लेता है। रुपए भी नदारद कर देता है। तुम भी अंधेरे में अपनी तिजोड़ी खोलना चाहो, और तुम्हें पता है कि कहां है, तो भी शायद तिजोड़ी तक न पहुंच पाओ। मामला क्या है?
चोर का अभ्यास हो गया है अंधेरे में देखने का। अंधेरे में अभ्यास करना पड़ता है देखने का।
जब तुम भरी दुपहरी में घर लौटते हो तेज रोशनी से, तो तुम्हें घर में अंधेरा मालूम पड़ता है। लेकिन थोड़ी देर बैठ गए, सुस्ता लिए, फिर आंखें सध जाती हैं; फिर रोशनी दिखायी पड़ने लगती है।
कभी रात में बैठकर देखो अंधेरे में। धीरे-धीरे आंखें सध जाएंगी। आंख का फोकस ठीक बैठ जाएगा, तो अंधेरे में भी थोड़ी-थोड़ी दिखावन शुरू हो जाएगी।
भीतर पहले अंधेरा मिलेगा, क्योंकि तुम जन्मों से भीतर नहीं गए हो। इसलिए भीतर, आंख देखने में असमर्थ हो गयी हैं। जैसे कोई बहुत वर्षों से न चला हो, और पैर लंगड़ा गए हों। फिर चले, तो ठीक से न चल पाए, लड़खड़ाए। लेकिन चलता रहे, तो पैरों में फिर गति आ जाए, फिर खून बहे, फिर मांस-पेशियां सबल हो जाएं। ऐसी ही आंखों की बात है।
प्रतीक्षा मत करो। बाहर से कोई न कभी आया, न आएगा। बाहर की प्रतीक्षा बड़े धोखे में डाल देती है।
प्रिय आएंगे। मन रहा पुलक दृग-युग अपलक मृदु-स्मृतियों के जलते दीपक सूनी गोधूली-बेला मेंमैं बैठी पंथ निहारूं अलि प्रिय आएंगे।
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