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एस धम्मो सनंतनो
अगर परिपूर्ण रूप से कोई साक्षी हो जाए, तो सब दर्द खो जाते हैं। और परिपूर्ण रूप से कोई असाक्षी हो जाए, तो जीवन नर्क है और जीवन में दर्द ही दर्द है । मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि साक्षीभाव हो जाने से सुख हो जाएगा। 1 मैं इतना ही कह रहा हूं कि दुख भी खो जाएंगे, और सुख भी खो जाएंगे। क्योंकि सुख भी दुख के ही रूप हैं।
फिर बचती है - परिपूर्ण शांति। उस शांति का नाम ही आनंद है। भाषाकोश में तो आनंद का अर्थ लिखा है : महासुख । वह गलत है। आनंद का भाषाकोश से क्या लेना-देना ! भाषाकोश लिखने वालों को आनंद का क्या पता ?
आनंद महासुख नहीं है। आनंद दुख और सुख दोनों का अभाव है। कोई उत्तेजना नहीं रह गयी - न सुखद, न दुखद; न प्रीतिकर, न अप्रीतिकर। उत्तेजना ही गयी। आनंद है अनुत्तेजित स्थिति । सब तरह का बुखार गया । सब तरफ शीतल हो गया। उस शीतल दशा को ही मोक्ष कहा है।
जब यह दशा तुम्हारी सामान्य दशा हो जाए, तो तुम यहां पृथ्वी पर रहते ही मोक्ष में विराजमान हो गए।
यहीं है नर्क । यहीं है स्वर्ग । यहीं है मोक्ष। और जो यहां मुक्त हो जाता है, वही मृत्यु के बाद भी मुक्त रहेगा। जो यहां बंधा है, वह मृत्यु के बाद फिर वापस लौट आएगा। वह इस चाक से बंधा है। यह चाक घूमता ही जा रहा है।
तुम पूछते हो : 'मेरे लिए क्या मार्ग है?'
साक्षी । और तुम्हारे लिए ही नहीं, सब के लिए। मार्ग एक है। चलने वाले अनेक होंगे, मगर मार्ग एक है।
तीसरा प्रश्न :
प
मुझे आपसे बहुत प्रेम है, फिर भी मुझे परमात्मा को जानने की प्यास क्यों नहीं है? प्रभु, मुझे भी पुकार लो। मैं कब तक भटकती रहूंगी ?
रमात्मा शब्द को छोड़ो। उस शब्द के कारण झंझट है।
परमात्मा को कभी देखा नहीं, प्रेम हो तो कैसे हो ? परमात्मा से मुलाकात नहीं, प्रेम हो तो कैसे हो ? परमात्मा है या नहीं, यह भी पक्का नहीं, तो प्रेम हो तो कैसे हो ?
परमात्मा से तो प्रेम ऐसे ही है, जैसे कोई अंधा आदमी अंधेरे में तीर चला रहा है और सोच रहा है- शिकार कर लेगा !
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