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एस धम्मो सनंतनो
हुआ पुण्य समाप्त हो गया है, और उसने कोई नया पुण्य किया नहीं।
राजा ने भगवान की बात सुन कहा : भंते! उसने बड़ा बुरा कर्म किया, जो आप जैसे बुद्ध के पास ही विहार में रहते हुए भी न दान दिया, न धर्म-श्रवण किया, न अपनी संपत्ति का कोई सदुपयोग किया। कोई पुण्य न कमाया और सब छोड़कर अंततः मर ही गया!
शास्ता हंसे और बोले : ऐसे ही महाराज! बुद्धिहीन पुरुष धन-संपत्ति पाकर भी निर्वाण की तलाश नहीं करते हैं। और धन-संपत्ति के कारण उत्पन्न तृष्णा उनका दीर्घकाल तक हनन करती है। तब उन्होंने यह गाथा कही:
हनन्ति भोगा दुम्मेधं नो चे पारगवेसिनो। भोगतण्हाय दुम्मेधो हन्ति अञ्चे'व अत्तनं ।।
'संसार को पार होने की कोशिश नहीं करने वाले दुर्बुद्धि मनुष्य को भोग नष्ट कर डालते हैं। भोग की तृष्णा में पड़कर वह दुर्बुद्धि पराए की तरह अपना ही घात करता है।'
सूत्र के पहले इस घटना को ठीक-ठीक विश्लिष्ट करके समझ लें। पहली तो बातः श्रावस्ती के एक अपुत्रक श्रेष्ठी के मर जाने के बाद...।
अक्सर ऐसा होता है। जिनके पास धन है, उनको पत्र नहीं होते। जिनके पास धन है, उनको संतान नहीं होती। अक्सर ऐसा होता है कि धनी आदमियों को गोद लेने पड़ते हैं बेटे। यह सारी दुनिया में ऐसा है ! गरीबों के घर खूब बेटे-बेटियां पैदा हो जाते हैं; अमीरों के घर कुछ चूक हो जाती है। इस चूक के पीछे जरूर कुछ मनोविज्ञान होगा।
मेरे देखे मनोविज्ञान यही है कि धनी आदमी में प्रेम नहीं होता। असल में धन को कमाने में उसको अपने प्रेम को बिलकुल नष्ट कर देना होता है।
प्रेमी धन कमा नहीं सकता। कमा भी ले, तो बचा नहीं सकता। एक तो कमाना मुश्किल होगा प्रेमी को, क्योंकि उसे हजार करुणाएं आएंगी। वह किसी की छाती में छुरा नहीं भोंक सकेगा। और किसी की जेब भी नहीं काट सकेगा। किसी से ज्यादा भी नहीं ले सकेगा। डांडी भी नहीं मार सकेगा। धोखा भी नहीं कर सकेगा। जालसाजी भी नहीं कर सकेगा। जिसके हृदय में प्रेम है, वह ज्यादा से ज्यादा अपनी रोटी-रोजी कमा ले, बस, बहुत। उतना भी हो जाए तो बहुत!
धन इकट्ठा करने के लिए तो हिंसा होनी चाहिए। धन इकट्ठा करने के लिए तो कठोरता होनी चाहिए। धन इकट्ठा करने के लिए तो छाती में हृदय नहीं, पत्थर होना चाहिए, तभी धन इकट्ठा होता है।
तो धन प्रेम की हत्या पर इकट्ठा होता है। और जिसके प्रेम की हत्या हो जाती
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