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एस धम्मो सनंतनो
एक किरण भी मिल जाए तो!
लेकिन चांदनी खूब बरस रही है। यह सारा अस्तित्व परमात्मा की वर्षा से भरा है। यहां हर बूंद में वही है; हर श्वास में वही है। जरा अपने रुख को बदलने की बात है।
तीसरा प्रश्नः
भगवान बुद्ध ने ज्ञानोपलब्धि के पहले छह वर्षों तक जो घोर तप किया था, क्या वह सब का सब व्यर्थ गया? या उसका कुछ अंश काम भी आया? समझाने की कृषा करें।
दो नों बातें हैं। सब का सब व्यर्थ भी गया और सब का सब काम भी आया।
-थोड़ा जागकर समझना, तो ही समझ पाओगे। थोड़ा अपने चैतन्य को झकझोरकर समझना, तो ही समझ पाओगे।
ऐसा उत्तर नहीं है कि कुछ काम नहीं आया। ऐसा भी उत्तर नहीं है कि सब काम आ गया। उत्तर ऐसा है कि कुछ भी काम नहीं आया और सब काम आ गया। क्या मैं कहना चाहता हूं इस विरोधाभास से? __पहली बातः वह छह वर्ष जो उन्होंने मेहनत की, उससे कुछ भी नहीं मिला। क्योंकि मिलने का कोई संबंध मेहनत से नहीं है। बाहर है ही नहीं। तुम छह वर्ष दौड़ो, कि साठ वर्ष दौड़ो-मिलेगा तो रुककर। इसे खूब गहरे बैठ जाने दो। मिलेगा तो रुककर। दौड़ना जब जाएगा, तब मिलेगा।
तुम छह वर्ष दौड़े; कोई व्यक्ति बारह वर्ष दौड़ा; कोई साठ वर्ष दौड़ा-इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। छह वर्ष दौड़ने वाला जब रुका, तब उसे मिला। बारह वर्ष दौड़ने वाला जब रुका, तब उसे मिला। साठ वर्ष दौड़ने वाला जब रुका, तब उसे मिला। तो दौड़ तो सब व्यर्थ गयी—इस अर्थ में। श्रम से कुछ भी नहीं हुआ। ठहरने से होता है। ____ मंजिल दूर नहीं है कि चलने से मिल जाए। तुम मंजिल अपने भीतर लिए हो, इसलिए चलने के कारण चूकते रहोगे। रुक जाओ, तो पा लोगे। ___इसलिए कहता हूं कि सब व्यर्थ गया। और फिर यह भी तुमसे कहना चाहता हूं-कि सब काम भी आ गया। क्योंकि बिना दौड़े कोई रुक नहीं सकता। जो खूब दौड़ लेता है, वही रुकता है। नहीं तो दौड़ने की खुजलाहट बनी रहती है! दौड़कर जो थक जाता है, दौड़-दौड़कर पाता है कि कुछ भी नहीं पाता, वही रुकता है। रुकना कुछ आसान बात नहीं है।
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