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________________ एस धम्मो सनंतनो गयीं। इसमें गुरु-शिष्य भी आ गए; और गुरुता भी नहीं आयी; और शिष्य की जड़ता भी नहीं आयी। गुरु-शिष्य का अपूर्व नाता भी आ गया; और नाता मोह भी नहीं बना। वह अंतरंग संबंध भी निर्मित हो गया, लेकिन उस अंतरंग संबंध में कोई गांठ नहीं पड़ी; कारागृह नहीं बना । बुद्ध को स्वीकार करते समय तुम्हें मुक्ति मिल रही है । बुद्ध को गुरु की तरह स्वीकार करते समय तुम गुरु के जाल में नहीं पड़ रहे हो। तुम सब जालों के पार जा रहे हो। ऐसे गुरु को ही पुराने शास्त्रों ने सदगुरु कहा है। गुरु तो बहुत हैं; सदगुरु कभी-कभी कोई होता है। ध्यान रखना; सदगुरु का अर्थ यही है कि पहले तुम्हें संसार से मुक्त करवा दे और फिर अपने से भी मुक्त करवा दे। क्योंकि मुक्ति में फिर अंत में बाधा नहीं आनी चाहिए। ऐसा ही समझो कि एक मां अपने बच्चे को चलना सिखाती है हाथ पकड़कर । चलना क्या सिखाओगे बच्चे को ? चलने की क्षमता उस में पड़ी है। तुम्हारे सिखाने से क्या होगा ? तुम्हारे सिखाने से होता, तो किसी लंगड़े को चलाओ ! किसी के पैर टूटे हों, उसको चलाओ ! तब पता चल जाएगा कि नहीं, अपने वश के बाहर की बात है। तुम्हारे सिखाने से चलता हो, तो पत्थरों को चलाओ सिखाकर । और तुम पा जाओगे कि यह नहीं होने वाला है। बच्चा चलता है, क्योंकि चल सकता है; बच्चे में चलने की क्षमता पड़ी है। लेकिन शायद हिम्मत नहीं जुटा पाता खड़े होने की । डरता है । स्वाभाविक । गिर जाऊं। कभी चला नहीं पहले, भय होगा ही। मां हाथ पकड़ लेती है । साथ-साथ चलने लगती है— कि देखो, मैं चल रही हूं। तुम भी मेरे जैसे हो। तुम्हारे भी दो पैर, मेरे भी दो पैर । आओ, मेरा हाथ पकड़ो और चलो। हाथ के सहारे बच्चा दो - चार कदम चल लेता है। और उसे भरोसा आता है। तुमने देखा, जैसे ही बच्चा थोड़ा चलने लगता है, वह हाथ छुड़ाता है मां से। वह कहता हैः मेरा हाथ छोड़ो। अब मां थोड़ी डरती भी है कभी कि अभी गिर न जाए; अभी छोटा है। मगर वह कहता है : मेरा हाथ छोड़ो। अब वह चलने का मजा खुद लेना चाहता है । और समझदार मां धीरे-धीरे हाथ छोड़ती है। नासमझ मां जबर्दस्ती हाथ को पकड़े रहती है। तो मां की कला क्या हुई ? पहले हाथ पकड़े और फिर छोड़े। पहले बच्चे को अपने पैरों पर खड़ा कर दे, फिर दूर हट जाए; छाया भी न पड़ने दे उस पर । कहीं ऐसा न हो कि बच्चा उसके आंचल को ही पकड़े जिंदगीभर कमजोर रह जाए ! कई दफे ऐसा हो जाता है। माताएं जरूरत से ज्यादा बच्चे को सहारा दे देती हैं। फिर वह अपने पैरों चल ही नहीं सकता। अभी एक युवक ने मुझे आकर कहा कि वह अकेला कमरे में नहीं सो सकता। 182
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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