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तृष्णा की जड़ देखते हैं पीले पत्तों को गिरते, लेकिन मन यही कहे जाता है कि मैं सदा हरा रहूंगा। रोज देखते हैं जवानी को बुढ़ापे में बदलते, स्वास्थ्य को बीमारी में गिरते; रोज देखते हैं किसी को धूल में खो जाते, लेकिन मन यही आशा संजोए रहता है— यह औरों के साथ होता है, मेरे साथ न हुआ, न होगा। मैं अपवाद हूं।
जिसने समझा अपने को अपवाद, वह संसार से मुक्त न हो सकेगा । जिसने समझा कि नियम शाश्वत है, कोई भी अपवाद नहीं...।
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जो हरा है, वह पीला होकर झरेगा। जो जन्मा है, वह मरेगा। जो अभी युवा है, कल थकेगा, बूढ़ा होगा। यहां हर चीज बनती और बिगड़ती है । सतत प्रवाह है यहां कुछ भी थिर नहीं । एक क्षण भी थिर होने की आशा रखना महाभ्रांति है । और थिर होने की आकांक्षा से ही सारे दुखों का जन्म है।
जो नहीं होने वाला है, वह हो जाए, इसी आकांक्षा में तो दुख की उत्पत्ति है। क्योंकि वह नहीं होगा और तुम दुखी होओगे ।
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जवान हो, जवानी को थिर बना लेने की आकांक्षा है । सदा जवान रहूं! यह नहीं होगा; कभी नहीं हुआ; यह हो नहीं सकता। यह नियम के विपरीत है। तुम असंभव की कामना कर रहे हो । फिर कामना टूटेगी। पूरी तो हो नहीं सकती, टूटेगी ही; तब विषाद होगा, तब गहन अंधेरे में खो जाओगे । और तब ऐसा लगेगा कि पराजित हुए। पराजित सिर्फ कामना हुई, तुम नहीं। लेकिन कामना से समझा था एक अपने को, इसलिए लगता है पराजित हुआ। फिर भी सीखोगे नहीं ! फिर-फिर क्षणभंगुर को पकड़ोगे ।
पानी के बबूले को थिर बनाने की आकांक्षा है ! जो फूल तुम्हारी बगिया में खिला — सदा खिला रहे; ऐसा ही खिला रहे; ऐसी ही सुगंध उठती रहे। झरेगा फूल कल सुबह । पंखुड़ियां गिरेंगी धूल में, तब तुम रोओगे । तब आंसू सम्हाले न सम्हलेंगे। लेकिन तुम्हारे रोने का कारण तुम ही हो । तुमने गलत चाहा था; तुमने असंभव चाहा था; जो नहीं होता है, वैसा चाहा था । इसलिए विषाद है ।
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काश! तुम देख लो उसे जो होता है, और वही चाहो, जो होता है, तो चाह मर गयी। चाह का अर्थ ही है : जो होता है, उसके विपरीत चाहना । जैसा नहीं होता है, वैसा चाहना । जो होता है, उसकी स्वीकृति, उसके साथ समरस हो जाना- - चाह मर गयी।
जवानी बूढ़ी हो जाती है, तुम भी स्वीकार कर लेते हो। जीवन मृत्यु में परिणत हो जाता है, तुम अंगीकार कर लेते हो । सुख दुखों में बदल जाते हैं; दिन रातों में ढल जाते हैं; तुम जरा भी ना-नुच नहीं करते। तुम कहते हो : जो होता है, होता है। जैसा होता है, वैसा ही होगा । तो कहां वासना है ?
वासना सदा विपरीत की वासना है। इस विपरीत की आकांक्षा को बुद्ध ने कहा है— तन्हा, तृष्णा ।
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