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________________ बोध से मार पर विजय कुछ था, लेने वाले नहीं हैं। और जब मेरे पास देने को कुछ भी नहीं था, मैं खुद ही मूढ़ता और अंधकार से भरा था, तब वे मेरे पीछे लगे रहे! ऐसी उलटी दुनिया है। इसलिए बुद्ध उनकी खोज करते हुए निकले कि वे जहां भी गए हों, जाकर पहला संदेश उनको दिया जाए। यद्यपि वे मुझे त्याग गए हैं। यद्यपि उन्होंने मान लिया कि मैं भ्रष्ट हो गया। लेकिन मेरे साथ बहुत दिन रहे। इतना कर्तव्य मेरा है कि पहला संदेश उन्हीं को दूं। इसलिए बुद्ध ने पहला प्रवचन उन्हीं पांच भिक्षुओं को दिया। उनका पीछा करते बुद्ध सारनाथ तक आए। जहां-जहां पता चला कि वे दूसरे गांव चले गए, बुद्ध वहां गए। सारनाथ जाकर उन्होंने देखा एक वृक्ष के नीचे पांचों भिक्षुओं को बैठे हुए। उन पांचों भिक्षुओं ने देखा बुद्ध को आते हुए। वे बोले कि यह भ्रष्ट गौतम आ रहा है! हम इसको नमस्कार न करें। यह नमस्कार के योग्य भी नहीं है। यह बिलकुल पतित हो गया है। तो वे पीठ करके बैठ गए। बुद्ध जब उनके पास गए, जब पास जाकर खड़े हो गए, और बुद्ध ने कहाः एक बार मेरी तरफ तो देखो। जिसे तुम छोड़ आए थे, मैं वही नहीं हूं। आज जो आया है. कोई और है। एक बार मेरी तरफ देखो। _ और उन्होंने पांचों ने आंख उठाकर बुद्ध की तरफ देखा। पहले एक उनके चरणों में गिरा; फिर दूसरी; फिर पांचों उनके चरणों में गिरे। क्षमा मांगने लगे कि हमें क्षमा कर दें। हमने तो सोचा कि भ्रष्ट गौतम आ रहा है। लेकिन हम देख सकते हैं कि सब रूपांतरित हो गया है। ज्योति का उदय हुआ है। तुम प्रकाशित हो गए। कैसे प्रकाशित हो गए? हमें राह बताओ। बुद्ध ने कहाः इसीलिए आया हूं। यह घटना सारनाथ जाते हुए रास्ते पर घटी। भगवान सर्वप्रथम ऋषिपत्तन मृगदाय में पंचवर्गीय भिक्षुओं को उपदेश देने के लिए उरुवेला से काशी की ओर आ रहे थे। मार्ग में उन्हें एक उपक आजीवक मिला। . आजीवक एक संप्रदाय था उस समय का, जो अब विनष्ट हो गया है। बुद्ध और जैन दोनों संप्रदाय आजीवक संप्रदाय से बहुत मिलते-जुलते हैं। उसी की छायाएं हैं इन पर। उसी के प्रतिबिंब हैं। उसी की ध्वनियां हैं। __ आजीवक संप्रदाय का एक भिक्षु मिला। उसने बुद्ध को देखा; वह चकित हो गया। ऐसा आदमी कभी नहीं देखा था। ऐसा ज्योतिर्मय, ऐसी शुद्ध इंद्रियां, ऐसी निर्मल आंखें, ऐसी निर्मल छाया, ऐसा चारों तरफ शांति का वातावरण! उसने कहा ः आवुस! तेरी इंद्रियां परिशुद्ध और बड़ी विमल हैं। तुम किस उद्देश्य से संन्यस्त हुए थे? अपना उद्देश्य मुझे भी बताओ। मैं भी खोज रहा हूं। कौन तुम्हारे गुरु ? कौन तुम्हारे शास्ता? मैं भी खोज रहा हूं। मुझे अब तक ठीक गुरु नहीं मिला। ठीक मार्ग नहीं मिला। और तुम किसके धर्म को मानते हो? कौन से धर्म में तुम्हारी 165
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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