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________________ बुद्धत्व का कमल है। नए की इस आकांक्षा से महत्वाकांक्षा पैदा होती है। और तुम सदा बेचैन रहते हो। आखिर हर नयी चीज पुरानी पड़ जाएगी, और बेचैनी बढ़ती ही चली जाएगी। ___पश्चिम में इतनी बेचैनी है, क्योंकि नए की बहुत पागल दौड़ है। हर चीज नयी होनी चाहिए। उपयोगिता का भी सवाल नहीं है; नए का सवाल है। हो सकता है, पुरानी चीज ज्यादा बेहतर हो; ज्यादा मजबूत हो; ज्यादा काम की हो। लेकिन इससे कोई संबंध नहीं है। नयी चीज चाहिए। नयी बदतर हो, तो भी चलेगा। टीम-टाम हो, तो भी चलेगा। मगर नयी चाहिए। फिर नए की दौड़ पूरी करने में तुम्हारा जीवन लग जाता है। और नया कभी कुछ भी नहीं हो पाता। चीजें कहीं नयी हो सकती हैं? चीजों की दौड़ का कोई अंत नहीं है। इसी में समाप्त हो जाओगे। हां; एक और ढंग है जीने का। जो है बाहर, ठीक है। अगर नए को ही खोजना है, तो भीतर खोजो। भीतर पुराने को काटो। दुनिया में दो तरह के लोग हैं : बाहर पुराने को नए में बदलते रहते हैं—इनका नाम संसारी। और जो भीतर पुराने को काटते और प्रतिपल नयी चेतना को मुक्त करते रहते हैं अतीत से इनका नाम संन्यासी। ___ स्मृति को जाने दो; भीतर अतीत का बोझ मत ढोओ; भीतर जो अतीत का कूड़ा-कचरा इकट्ठा हो गया है, उसे हमेशा आग लगाते रहो, जलाते रहो। भीतर नए रहो। और तुम परम आनंद पाओगे। भीतर का नयापन दिव्य में प्रवेश बन जाएगा। बाहर के नएपन से क्या होगा? और शायद हम बाहर नयापन इसलिए खोजते हैं कि हमारे भीतर नए की तलाश है— भीतर-और हम भूल से बाहर खोजते हैं। भीतर चाहिए युवापन, नयापन, ताजगी, सुबह की ताजगी; सुबह की ओस की बूंदों की ताजगी; सुबह के सूरज की ताजगी; सुबह के फूल की ताजगी। ऐसी भीतर चाहिए दशा। भीतर तो नहीं खोजते। सोचते हैं : नयी कार ले आएं; नया मकान बना लें; नयी स्त्री मिल जाए; नयी दुकान खोल लें; नया धंधा कर लें; तो शायद हल हो जाएगा। नहीं हल होगा। सिकंदरों का हल नहीं होता; तुम्हारा कैसे हल होगा! जिनके पास बहुत है, उनका हल नहीं होता; तुम्हारा कैसे हल होगा? इस गलत दिशा से अपने चित्त को मुक्त करो। भीतर नए होने की कला सीखो। यह नयापन सिर्फ तुम्हें उलझाए रखता है, व्यस्त रखता है। किनारे पर बैठकर कंकड़ें फेंकते गुजर गए हैं बहुत दिन पर, फिर भी तो इस मौन के समुंदर में 127
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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