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________________ बुद्धत्व का कमल मिल गया, तो स्वर्ग से भी ले भागा वह। जिंदगीभर कबाड़ी का काम किया; देखा होगा, अच्छा फाटक है; और यहां क्या जरूरत है! वह ले भागा। तुम्हारा मन तो तुम्हारे साथ जाएगा, जहां तुम जाओगे। तुम्हारा मन अगर कबाड़ी है, तो तुम स्वर्ग के द्वार पर भी वही करोगे। तुम काम-धंधे के दुश्मन न बनो। यह अकड़ न लाओ। मेरे साथ होने का अर्थ ही यही है कि तुम इस जगत को स्वीकार करो। तुम्हारी स्थिति जैसी है, उसे स्वीकार करो। तुम्हारी स्थिति जैसी है, उसको ही तुम प्रभु का भजन बनाओ; उसको ही कीर्तन बनाओ; वही तुम्हारा ध्यान बने। जरा करके देखो। तुम चकित होओगे। वही आदमी जो कल ग्राहक की तरह आया था, और तुम सिर्फ उसकी जेब में उत्सुक थे, और तुमने उसके साथ ऐसा भी व्यवहार नहीं किया, जैसा आदमी के साथ करना चाहिए; वही आदमी, कल तुम उसे परमात्मा की तरह देखो-है तो उसमें भी छिपा हुआ; जो तुम में छिपा है, वह उस में भी छिपा है-तुम जरा उसकी परमात्मा की तरह सेवा करो; और तुम फर्क देखना। काम-धंधा काम-धंधा नहीं रहा। काम-धंधे में ध्यान की गंध उतरने लगेगी। और यह हो तो ही कला है। भगोड़ेपन से क्या होता है! भागकर जाओगे, कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम वही रहोगे; और तुम्हारा व्यवहार वही रहेगा। और तुम वहां भी किसी न किसी तरह का काम-धंधा खोज लोगे। मैंने देखा, मैं छोटा था, एक बड़े प्रसिद्ध संन्यासी का प्रवचन सुनने गया। वे ब्रह्मचर्चा कर रहे हैं और बीच-बीच में कोई आ जाते...। सेठ कालूराम आ गए। तो वे कहते : आइए, सेठजी! ब्रह्मचर्चा छूट जाती। सेठजी आ गए। कौन फिकर करता ब्रह्म की। भाड़ में जाओ। पहले कालूराम सेठजी को बिठालते वे—कि आइए, बैठिए। आगे कर लेते। सेठजी पीछे बैठ रहे थे, वे उनको आगे बुला लेते। तब तक विघ्न-बाधा पड़ती। ब्रह्मचर्चा रुक जाती। सेठजी बैठ जाते, तब फिर ब्रह्मचर्चा शुरू होती। __जब मैंने दो-तीन बार यह देखा, तो मैंने उनसे पूछा कि ब्रह्मचर्चा काहे के लिए चला रहे हैं! आप इसमें क्षणभर भी डूबते नहीं! फिर कोई सेठजी आ गए; फिर कोई फलानेजी आ गए! इंचार्ज साहब आ गए! कलेक्टर साहब आ गए! यह चर्चा है? यह कोई धर्म-प्रवचन हो रहा है? ___ यह आदमी दुकानदार है। यह काम-धंधे वाला आदमी है। यह दुकान पर जैसे सेठजी को बुलाकर बिठालता रहा होगा, और कलेक्टर साहब आ गए तो उनको बिठालता रहा होगा; और उनके लिए पान लाओ, और सिगरेट लाओ, और चाय बुलवाओ...। हालांकि पान, सिगरेट, चाय, अब नहीं बुलवा सकता। मगर भीतर इसके वे भी इरादे उठ रहे होंगे; जब कहता है: बैठो कालूरामजी! बिराजिए। ठीक 125
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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