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एस धम्मो सनंतनो
थे। वह इन्हीं बोधिसत्वों की प्रतीक्षा कर रहे थे कि आ जाएं, तो इनको दुरुस्त किया जाए कि किसकी खबर पूछने आए हो? कौन बीमार? कैसा बीमार? बीमारी क्या है? देह बीमारी है, तो जो भी देह में है, वही बीमार है। देह उपाधि है और इसकी कोई औषधि कहां? तुम सोचते हो, तुम बीमार नहीं हो? अगर तुम बीमार नहीं हो, तो जगत में क्यों हो? जगत में तो आते ही वे हैं, जो बीमार हैं। जब कोई बीमार नहीं रह जाता, तो जगत से मुक्त हो जाता है। फिर उसका निवास मोक्ष में है। फिर यहां नहीं। जो स्वस्थ हो गया, जो स्वयं में स्थित हो गया, फिर यहां कहां! फिर तो गया परलोक। फिर तो खो जाता है यहां से।
वे सब जानते थे। विमलकीर्ति के ढंगों से वे परिचित थे। यह जैसे एक परीक्षा थी बोधिसत्वों की। सबने इनकार कर दिया। सिर्फ मंजुश्री राजी हुआ। मंजुश्री क्यों राजी हुआ? यह भी समझने जैसा है।
मंजुश्री भी अनूठा शिष्य है। वह अकेला है, जिसमें अहंकार नहीं है। इसलिए राजी हुआ। चलो, विमलकीर्ति दो-चार थपेड़े मारेंगे, तो क्या हर्जा है! चोट लगने वाला वहां भीतर कोई है नहीं, जिस पर चोट लग जाए। वहां अहंकार नहीं है। वहां अहंकार की रेखा भी नहीं है, तो चोट कैसे लगेगी? ___ मंजुश्री अकेला है बुद्ध के शिष्यों में, जो शून्यभाव में है। जब उससे कहा, तो वह तत्क्षण चलने को राजी हो गया। और उसने और सबको भी ले लिया साथ कि आओ भाई! जो होगा देखना। तुम डरते हो; तुम खड़े रहना। मैं चला जाऊंगा सिंह के मुंह में; और जो होगा देख लेना। ___मंजुश्री गया और उसने सवाल किए। और हर सवाल के उत्तर में विमलकीर्ति ने चांटा मारा। लेकिन एक भी चांटा मंजुश्री को लगा नहीं। मंजुश्री खरा उतरा। विमलकीर्ति ने उसका धन्यवाद किया। ऐसे ही व्यक्ति की तलाश थी। चलो; बुद्ध के शिष्यों में एक पारस-पत्थर बना! ___ विमलकीर्ति ने इधर झंझोरा; उधर झंझोरा। सोचा कि किसी तरह प्रतिक्रिया हो जाए; क्रोधित हो जाए; अशांत हो जाए; सोचने लगे एक क्षण को मन में कि कहां फंस गए! हम भी मना कर दिए होते, जैसे सबने किया था। अब यह सब के सामने फजीहत हो रही है! लेकिन फजीहत का कोई सवाल ही नहीं है। अहंकार की फजीहत होती है; शून्य की क्या फजीहत! मंजुश्री वैसे ही रहा; जैसा आया था, वैसा ही रहा-एकरस। जरा भी उद्विग्नता नहीं हुई। जरा भी अशांति नहीं हुई।
दूसरों की अकड़ क्या थी? दूसरों की अड़चन यह थी कि वे तो सब थे भिक्षु, संन्यासी; और विमलकीर्ति था गृहस्थ। पहले तो गृहस्थ के घर संन्यासी पूछने जाए कि कैसे हो! यही बात ठीक नहीं। क्योंकि संन्यासी तो ऊपर और गृहस्थ नीचे। और इसीलिए बुद्ध भेजना चाहते थे कि संन्यासी का यह अहंकार जाना चाहिए। कौन ऊपर? कौन नीचे? यह भी अहंकार ही है कि हम कैसे जाएं!
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