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________________ तृष्णा को समझो और कोई जिम्मेवार नहीं है। तुम जो हो, तुम्ही जिम्मेवार हो। यह सत्य तुम्हारे हृदय में बैठ जाए, तो इसी क्षण क्रांति शुरू हो जाए। तब तुम दुख के जिम्मेवार हो। अगर तुम दुख ही चाहते हो, दुख बनाए चले जाओ। कोई तुम्हें रोकता नहीं। तुम्हारी स्वतंत्रता परम है। ___ अगर तुम सुख चाहते हो, तो इस सत्य को समझो कि दुख कैसे पैदा होता है! तृष्णा से पैदा होता है। तुम्हारे पास दस हजार रुपए हैं, तो तुम दुखी। क्योंकि तुम कहते हो, जब तक लाख न हो जाएं, कोई कैसे सुखी हो सकता है! लाख हो जाएंगे, तुम सोचते हो, सुखी हो जाओगे! जब लाख हो जाएंगे, तब दस लाख मन मांगेगा, क्योंकि मन का अनुपात वही रहेगा। दस हजार था, तो लाख मांगता था--दस गुना। जब लाख हो जाएंगे, मन दस लाख मांगेगा। फिर तुम दुखी रहोगे। ___ तुम्हारे और मन की अपेक्षा में कभी तालमेल होने वाला नहीं है। दस लाख हो जाएंगे, तो फिक्र मत करना तुम कि कुछ फर्क पड़ने वाला है। करोड़ मांगेगा मन। मन का अंतर उतना ही रहेगा। मन तुम से आगे छलांग लगाता हुआ चलता है। तुम जहां हो, वहां से दस कदम आगे होगा। वह कहेगा : यहां आ जाओ, तो सुख हो जाएगा। मन तुम्हारे दुख को बनाए चला जाता है। तुमसे दस कदम आगे होता है, तुम हमेशा लक्ष्य से दस कदम पीछे होते हो, इसलिए दुख है। दस कदम पीछे का दुख! अब क्या करें? ___ एक ही उपाय है कि तुम जहां हो, वहीं उसी अवस्था को स्वीकार कर लो। बुद्ध उसे कहते हैं-तथाता। स्वीकार कर लो। जैसा है, ठीक है। और यह ठीक है-ऐसा किसी जबर्दस्ती से मत कर लेना, नहीं तो कुछ फायदा नहीं। भीतर तो मन जाल बुनता ही रहेगा। इसलिए धीरता से, समझ से, बुद्धि से, प्रज्ञा से, समझकर रुकना। नहीं तो अक्सर लोग सांत्वना कर लेते हैं कि ठीक है। अब जो नहीं मिलता, जाने दो। अपनी सामर्थ्य भी नहीं है। अब ज्यादा झंझट में कौन पड़े? जितना है, इतने से राजी हो जाओ। मगर यह सांत्वना है, संतोष नहीं। सांत्वना में तुम सुखी न हो जाओगे। तुम असंतोष के नए रास्ते खोज लोगे। ___ मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम सब तरह से संतोष में जीते हैं, फिर भी सुख नहीं है! अब यह हो ही नहीं सकता। यह असंभव है। जैसे आग गरम है, उसका स्वभाव है। ऐसे संतोष का स्वभाव सुख है। यह हो ही नहीं सकता। वे कहते हैं : हम संतोष में जीते हैं, लेकिन फिर भी सुख नहीं है। और बेईमान सुखी हैं। और चोर, और तस्कर, और राजनेता, सब तरह के बेईमान मजा कर रहे हैं, और हम संतोषी! और हम भगवान की पूजा भी करते हैं, भजन भी करते हैं। चोरी नहीं करते। झूठ नहीं बोलते। बेईमानी नहीं करते। किसी को धोखा नहीं देते। 91
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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