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पहला प्रश्न :
जीने में जीवन है
मैं तब तक ध्यान कैसे कर सकता हूं जब तक कि संसार में इतना दुख है, दरिद्रता है, दीनता है? क्या ऐसी स्थिति में ध्यान आदि करना निपट स्वार्थ नहीं है? परमात्मा मुझे यदि मिले, तो उससे अपनी शांति मांगने के बजाय मैं उन लोगों के लिए दंड ही मांगना ज्यादा पसंद करूंगा जिनके कारण संसार में शोषण है, दुख है और अन्याय है ।
सी आपकी मर्जी! ध्यान न करना हो तो कोई भी बहाना काफी है। ध्यान न करना हो तो किसी भी तरह से अपने को समझा ले सकते हैं कि ध्यान करना ठीक नहीं। लेकिन अभी यह भी नहीं समझे हो कि ध्यान क्या है? यह भी नहीं समझे हो कि दुनिया में इतना दुख, इतनी पीड़ा, इतनी परेशानी ध्यान के न होने के कारण है।
दुखी आदमी दूसरे को दुख देता है । और कुछ देना भी चाहे तो नहीं दे सकता। जो तुम्हारे पास है वही तो दोगे। जो तुम्हारे पास नहीं है, वह देना भी चाहो तो कैसे दोगे । दुखी दुख देता है, सुखी सुख देता है। यदि तुम चाहते हो कि दुनिया में सुख हो, तो भीतर की शांति, भीतर का होश अनिवार्य शर्तें हैं ।
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