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________________ एस धम्मो सनंतनो तुम्हारे पंक से खींचे। वह जो बूढ़ा महावत है, वह कल्याण-मित्र। उसने आकर बैंड-बाजा बजा दिया, हाथी जाग पड़ा। उसने कुछ भी तो नहीं किया। हाथी को न मारा, न पीटा, न हाथी को पुकारा, न कुछ किया, सिर्फ एक स्थिति पैदा कर दी। कल्याण-मित्र का अर्थ होता है, जो तुम्हारे लिए एक परिस्थिति पैदा कर दे जिसमें तुम जाग सको। 'नहीं तो अकेला विचरण करे।' 'अकेला रहना श्रेष्ठ है, मूर्ख के साथ मित्रता अच्छी नहीं। अकेला विचरे, पाप न करे। हस्तिराज की तरह अनुत्सुक होकर रहे।' या तो मित्रता करना तो कल्याण-मित्रता करना, या मित्रता करना ही मत, फिर एकल रहे, अकेला रहे, फिर ऐसे ही चले जैसे अकेला हाथी विचरता है। और अनुत्सुक रहे। जैसे हाथी रास्ते पर चलता है, कुत्ते भौंकते हैं, फिकर नहीं करता, देखता ही नहीं लौटकर, अपना चलता चला जाता है। 'फिर अकेला ही विचरे।' सिर्फ एक ही खयाल रहे अकेले में क्योंकि अकेले में पाप घेरेगा—इसलिए पाप न करे। बस इतना ही स्मरण रखे कि पाप नहीं करना है। किसी को हानि पहुंचे, ऐसा कुछ भी नहीं करना है। अपना लाभ भी होता हो दूसरे को हानि पहुंचने से, तो भी दूसरे को हानि नहीं पहुंचानी, अपना लाभ भी छोड़ देना है। बस, दूसरे को हानि न पहुंचे; ऐसे कृत्यों से बचता रहे और अकेला विचरता रहे, तो धीरे-धीरे यात्रा हो जाएगी। अगर संगी-साथी मिल जाए कोई, कल्याण-साथी, तो काफी अच्छा है। जल्दी यात्रा होगी। सुगम हो जाएगा मार्ग। ___'वृद्धावस्था तक शील का पालन सुख है। स्थिर श्रद्धा का होना सुख है। ज्ञान का लाभ होना सुख है। पापों का न करना सुख है।' __ और बुद्ध ने कहा, सुख एक ही है, श्रद्धा का होना सुख है। स्वयं में श्रद्धा का होना सुख है। सोचो, वह बूढ़ा हाथी जब बाहर निकला होगा कीचड़ से तो कैसे महासुख को न उपलब्ध हो गया होगा! कीचड़ से निकलने का ही सुख नहीं था वह, उससे भी बड़ी बात घटी थी-शायद भीड़ में किसी को भी न दिखायी पड़ी हो; भीड़ ने तो यही देखा होगा कि हाथी कितना मस्त, कीचड़ से निकल आया इसलिए मस्त हो रहा है। बुद्ध कहते हैं, अगर गौर से देखो तो कीचड़ से निकलना तो गौण था, हाथी को अपने पर श्रद्धा आ गयी, इसलिए सुखी हो रहा है। उसे बात दिखायी पड़ गयी कि अरे, मेरा ही विचार था जो मुझे कमजोर बनाए था। मैं बूढ़ा मान रहा था तो बूढ़ा था और बैंड-बाजे में मैं जवान हो गया तो जवान हो गया। तो मेरा विचार ही मेरी नियति है। मैं जो चाहूं, वही हो सकता हूं। मैं जो हो गया हूं, मेरे ही विचारने से हो गया हूं। तो मेरा विचार मेरा बल है। श्रद्धा लौट आयी। स्वयं पर श्रद्धा सुख है। 340
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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