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________________ जीवन का परम सत्य : यहीं, अभी, इसी में भेरी, संग्राम-भेरी बज रही हो और हाथी सोया रहता, नींद में पड़ जाता, अफीम चढ़ाए होता, तो कोई मतलब हल नहीं होने वाला था। सोचता कि कौन उपद्रव कर रहा है नींद में! बुद्धपुरुषों के पास रहना स्मृतिवान होकर, जागे हुए होकर, सजग। एक शब्द न चूक जाए, एक मुद्रा न चूक जाए, बुद्ध की एक झलक न चूक जाए। ऐसा जो जागा हुआ रहेगा, वह सीखेगा। और दूसरी बात कहते हैं, 'प्रसन्नचित्त होकर।' उदास होकर भी मत रहना बुद्धों के पास। क्योंकि उदासी में तुम खिल न पाओगे। मूर्छित रहे तो सुन न पाओगे, उदास रहे तो खिल न पाओगे। उत्सव में रहना। अब यह तुम जरा बात सुनो। बौद्ध भिक्षु भी यह नहीं माने कि प्रसन्न रहना। बौद्ध भिक्षुओं को देखो तो लंबे चेहरे, उदास, मरे-मराए-बड़ा बोझ ढो रहे हैं! जैसे धर्म कोई बोझ है। मैं तुमसे कहता हूं, धर्म उत्सव है, नृत्य है। धर्म संगीत है। धर्म गीत है। रसो वै सः। धर्म तो रस है। मूल रस है। बुद्ध का यह वचन सुनो, ‘स्मृतिवान और प्रसन्न होकर।' स्मृतिवान, ताकि बुद्ध में जो तुम्हारी तरफ बह रहा है, वह चूक न जाए। और प्रसन्न होकर, क्योंकि प्रसन्न होकर ही तुम्हारे प्राण नाचेंगे। और तुम नाचोगे तो बुद्ध के साथ हो पाओगे। 'सारे विघ्नों को दूर करके साथ हो जाए।' फिर कोई बाधाएं न माने। हजार बाधाएं हों तो उनका त्याग कर दे बाधाओं का। क्योंकि ऐसे अवसर बार-बार नहीं मिलते हैं। 'यदि साथ चलने वाला कोई बुद्धिमान अनुभवी मित्र न मिले, जैसे राजा अपने विजित राज्य को छोड़कर अकेला घूमता है, या जैसे एकल हाथी अकेला जंगल में घूमता है, तो फिर वैसा ही अकेला विचरण करे।' . बुद्ध कहते हैं, अगर कोई सदगुरु न मिले, तो अकेला ही विचरण करे। असदगुरु से तो बचे। उससे तो अकेला ठीक। कोई मित्र मिल जाए तो ठीक, कोई कल्याण-मित्र-बुद्ध ने जो ठीक उपयोग किया है शब्द गुरु के लिए, वह है कल्याण-मित्र। दोनों शब्द बड़े प्यारे हैं। एक तो मित्र वे कहते हैं, क्योंकि गरु मित्र है। उससे बड़ा और कौन मित्र! और वह कल्याण-मित्र है। मित्र तो और भी होते हैं बहुत, लेकिन अक्सर अकल्याण के मित्र होते हैं। शराब पीने जा रहे हो तो बहुत मित्र बन जाते हैं। मांस खा रहे हो तो बहुत मित्र आ जाते हैं। धन-पैसा है तो बहुत साथी हो जाते हैं। धन-पैसा गया तो साथी भी गए। अकल्याण में तो बहुत मित्र हो जाते हैं-जुआघर की दोस्ती। कल्याण-मित्र, जो तुम्हारी शांति में, तुम्हारी समाधि में, तुम्हारे ध्यान में मित्रता बांधे। जिसके सहारे तुम आगे बढ़ने लगो। जो तुम्हें धीरे-धीरे 339
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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