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________________ एस धम्मो सनंतनो इसलिए बुद्ध और महावीर ने एक महाक्रांति इस देश में की। ब्राह्मणों की संस्कृति में बूढ़े के संन्यास की व्यवस्था थी-पचहत्तर साल के बाद। एक तो पचहत्तर साल के बाद कोई बचता नहीं, कोई भूल-चूक से बच गए, तो संन्यस्त हो जाएंगे। संन्यास तब लेने की व्यवस्था थी जब संसार तुम्हें खुद ही छोड़ दे, जब संसार खुद ही तैयारी करने लगे कि तुम्हें जाकर कबाड़खाने में कहीं फेंक आए, किसी अस्पताल में डाल दें, कि किसी वृद्धाश्रम में भरती करवा दें। जब किसी कबाड़खाने में फेंकने की संसार की ही इच्छा हो जाए, जब तुम्हारे बेटे ही सोचने लगें कि अब जाओ भी, अब बहुत हो गया, अब और न सताओ, तब संन्यास ले लेना। पचहत्तर साल! सौ साल का हिसाब बांधकर रखा था। सौ साल कोई भी कभी जीता नहीं। उन दिनों में भी नहीं जीते थे लोग। वह सिर्फ आशा है। कभी-कभी, कभी-कभार कोई आदमी सौ साल जीआ है। आज भी नहीं जीता, उन दिनों का तो सवाल ही नहीं है। उन दिनों की जितनी खोजबीन की गयी है-किताबों को छोड़ दो-जो अस्थि-पंजर मिले हैं सारी दुनिया पर, वह इस बात के सबूत हैं कि चालीस साल से ज्यादा, पचास साल से ज्यादा उन दिनों आदमी जीआ ही नहीं। वह शतायु होने की तो कामना थी। आशीर्वाद था कि सौ वर्ष जीओ। वह कुछ होता नहीं था। लेकिन उस कामना पर यह सारा का सारा शास्त्र निर्मित हुआ था। पच्चीस साल तक ब्रह्मचर्य, पचास साल तक गृहस्थ, पचहत्तर साल तक वानप्रस्थ, फिर पचहत्तर साल से सौ साल तक संन्यास। वह संन्यास घटता नहीं था। या कभी-कभी घटता था, कुछ लोग जो शतजीवी होते थे। इसलिए बुद्ध और महावीर ने तो एक महाक्रांति का सूत्रपात किया। उन्होंने इस पूरे गणित को बदला। उन्होंने कहा, संन्यास तो जवान की बात है। जब ऊर्जा प्रखर है, जब ऊर्जा जलती है लपट के साथ, वासना भी तेज है, जीवन की ऊर्जा भी तेज है, फंसने का डर भी है, निकलने की शक्ति भी है, तभी निकल जाना। क्योंकि पीछे शक्ति तो कम होती जाएगी और कीचड़ वैसी की वैसी रहेगी। __इस तालाब में कीचड़ तब भी थी, जब यह हाथी जवान था। अब हाथी तो बूढ़ा हो गया, तालाब की कीचड़ अब भी वैसी की वैसी है। कीचड़ में कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। वासना की कीचड़ सदा वैसी की वैसी रहती है। शायद कभी जवानी में इस तालाब पर स्नान करने आया भी हो-आया ही होगा, नहीं तो बुढ़ापे में क्यों आता? हम उसी तालाब पर तो जाते हैं, जिसमें जवानी में भी गए हों। जहां जवानी में गए हैं, वहीं तो हम बुढ़ापे में भी जाते हैं—आदत, पुराने संस्कार! इसी तालाब पर नहाता रहा होगा। हालांकि कोई कहानी नहीं है इसके फंसने की, क्योंकि तब जवान था, निकल-निकल गया होगा। अब बूढ़ा हो गया है, कीचड़ तो वैसी की वैसी है, लेकिन अब निकलने की शक्ति क्षीण हो गयी है। इसके पहले कि बुढ़ापा तुम्हें दीन-दुर्बल कर जाए, अपनी ऊर्जा को ध्यान में 324
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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