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हम अनंत के यात्री हैं
पहला प्रश्न :
मैं विगत दो-तीन वर्ष से संन्यास लेना चाहता हूं, अब तक नहीं ले पाया। अब जैसी आपकी आज्ञा।
आ प तो ऐसे पूछ रहे हैं जैसे मेरी आज्ञा से रुके हों! और जब तीन-चार वर्ष तक
- झंझट टाल दी है, तो अब झंझट क्यों लेते हैं! जब इतने दिन निकल गए, लेना चाहा और नहीं लिया, थोड़े दिन और हैं, निकल जाएंगे! हिम्मत रखो! हारिए न हिम्मत बिसारिए न राम।
एक आदमी मुल्ला नसरुद्दीन के कंधे पर हाथ रखा और पूछा, अरे मुल्ला, आप तो गर्मियों में कश्मीर जाने वाले थे, नहीं गए? मुल्ला ने कहा कि कश्मीर! कश्मीर तो हम पिछले साल जाने वाले थे; और उसके भी पहले मनाली जाने वाले थे; इस साल तो हम नैनीताल नहीं गए।
घर बैठे-बैठे मजा लो, जाना-आना कहां है! तीन-चार साल से जा रहे हो, संन्यास ले रहे हो, अब आज ऐसी कौन सी अड़चन आ गयी कि लो ही। ऐसे ही मन को समझाए रखो, भुलाए रखो, इतनी बीती थोड़ी रही, वह भी बीत जाएगी।
फिर मुझ से आज्ञा मांगते हो! जैसे मैं संन्यास का विरोधी हूं। सुबह-शाम यही
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