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एस धम्मो सनंतनो
वेय्यग्घपञ्चमं हंत्वा अनीघो याति ब्राह्मणो । । २४६ ।।
प्र थ म दृश्य
एक समय वैशाली में दुर्भिक्ष हुआ था और महामारी फैली थी। लोग कुत्तों की मौत मर रहे थे। मृत्यु का तांडव नृत्य हो रहा था । मृत्यु का ऐसा विकराल रूप तो लोगों ने कभी नहीं देखा था, न सुना था । सब उपाय किए गए थे, लेकिन सब उपाय हार गए थे। फिर कोई और मार्ग न देखकर लिच्छवी राजा राजगृह जाकर भगवान को वैशाली लाए। भगवान की उपस्थिति में मृत्यु का नंगा नृत्य धीरे-धीरे शांत हो गया था - मृत्यु पर तो अमृत की ही विजय हो सकती है। फिर जल भी बरसा था, सूखे वृक्ष पुनः हरे हुए थे; फूल वर्षों से न लगे थे, फिर लगे थे, फिर फल आने शुरू हुए थे। लोग अति प्रसन्न थे।
और भगवान ने जब वैशाली से विदा ली थी तो लोगों ने महोत्सव मनाया था, उनके हृदय आभार और अनुग्रह से गदगद थे। और तब किसी भिक्षु ने भगवान से पूछा था- यह चमत्कार कैसे हुआ? भगवान ने कहा था - भिक्षुओ, बात आज की नहीं है। बीज तो बहुत पुराना है, वृक्ष जरूर आज हुआ है। मैं पूर्वकाल में शंख नामक ब्राह्मण होकर प्रत्येक बुद्धपुरुष के चैत्यों की पूजा किया करता था । और यह जो कुछ हुआ है, उसी पूजा के विपाक से हुआ है। जो उस दिन किया था वह तो अल्प था, अत्यल्प था, लेकिन उसका ऐसा महान फल हुआ है। बीज तो होते भी छोटे ही हैं। पर उनसे पैदा हुए वृक्ष आकाश को छूने में समर्थ हो जाते हैं। थोड़ा सा त्याग भी, अल्पमात्र त्याग भी महासुख लाता है। थोड़ी सी पूजा भी, थोड़ा सा ध्यान भी जीवन क्रांति बन जाता है। और जीवन के सारे चमत्कार ध्यान के ही चमत्कार हैं। तब उन्होंने ये गाथाएं कही थीं
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मत्तासुखपरिच्चागा पस्से चे विपुलं सुखं । चजे मत्तासुखं धीरो संपस्सं विपुलं सुखं ।। परदुक्खूपदानेन यो अत्तनो सुखमिच्छति। वेरसंसग्गसंसट्ठो वेरा सो न परिमुच्चति।।
'थोड़े सुख के परित्याग से यदि अधिक सुख का लाभ दिखायी दे तो धीरपुरुष अधिक सुख के खयाल से अल्पसुख का त्याग कर दे।'
'दूसरों को दुख देकर जो अपने लिए सुख चाहता है, वह वैर में और वैर के चक्र में फंसा हुआ व्यक्ति कभी वैर से मुक्त नहीं होता ।'