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________________ एस धम्मो सनंतनो फुसामि नेक्खम्मसुखं अपुथुञ्जनसेवितं । भिक्खु' विस्सासमापादि अप्पत्तो आसवक्खयं । । २२४।। जीवन बंधी - बंधायी पटरियों पर दौड़ती रेलगाड़ी जैसा नहीं है । जीवन है सरिताओं जैसा मुक्त | जीवन है स्वच्छंद । जीवन की दिशा बाहर से नहीं आती, जीवन की दिशा अंतरतम से आती है। भीतर के आलोक से चलता है। जीवन, बाहर की खींचतान से नहीं । और जिसने भी बाहर की खींचतान से चलाने की कोशिश की, वह जीवन से वंचित हो जाता है। जीवन की गरिमा यही है कि जबर्दस्ती जीवन पर नहीं हो सकती। जीवन होता है तो सहज होता है। सहज स्फुरणा ही जीवन का सौंदर्य है । और जहां तुमने जबर्दस्ती की, जीवन को किन्हीं ढांचों में ढाला, किन्हीं लकीरों पर बहाने की कोशिश की, वहीं जीवन अपने मौलिक स्वर को खो देता है। वहीं जीवन विच्छिन्न हो जाता है जगत से, वहीं तुम टूट जाते हो । वहीं तुम्हारा संबंध अस्तित्व से विलुप्त हो जाता है। तुम अलग-थलग पड़ जाते हो । उस अलग-थलग पड़ जाने में ही अहंकार का जन्म है। दूसरी बात, जीवन को समझने के लिए लकीर के फकीर होना आवश्यक नहीं है; आवश्यक तो है ही नहीं, खतरनाक है, घातक है। जीवन इतना विराट है कि तुम उसे सिद्धांतों के संकरे दायरे में बांध न सकोगे। जीवन किसी आंगन में बंधता नहीं । जीवन आकाश जैसा है। और जहां तुमने आंगन में बांधा, वहीं गंदगी शुरू हो जाती है। जैसे ही तुमने जीवन को सिद्धांत में ढाला, वहीं तुमने एक संकरी गली में डाल दिया विराट को | यह तुम असंभव करने की कोशिश कर रहे हो । लेकिन मन करता है यह कोशिश । क्योंकि मन की एक तकलीफ है - मन विराट के सामने घबड़ाता है । मन असीम के सामने कंपता है । असीम में तो मन को लगता है, हुई मेरी मृत्यु। तो मन हर चीज को सीमा देना चाहता है। मन हर चीज को अपने अनुकूल, अपने अनुसार चलाना चाहता है । मन हर चीज का नियंत्रक होना चाहता है। मन नियंत्रण में सुरक्षा पाता है । और जहां नियंत्रण नहीं है, वहीं मन डांवाडोल होता है, घबड़ाता - मौत सामने खड़ी मालूम होती है। मौत से बहुत डरता है, कहीं मिट न जाऊं। ऐसे ही जैसे बूंद सागर में जाने से डरे। गयी तो मिटेगी। यद्यपि यह एक ही पहलू है, मिटना । दूसरा पहलू यह है कि सागर हो जाएगी। मगर दूसरे पहलू की तो बूंद को खबर कहां हो, कैसे हो ! मिटे न, तब तक तो पता कैसे हो ! मिटने के पहले तो यही लगता है कि मिट जाऊंगी। तो बूंद अगर हर चेष्टा करती हो अपने को सागर से बचा लेने की, तो कुछ आश्चर्य नहीं है। ऐसे ही मन की बूंद अपने को बचाने की चेष्टा करती है । स्वभावतः, मन बड़े तर्क, बड़े सिद्धांत, बड़े शास्त्रों का आयोजन करता है, जिनकी 70
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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