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क्षण है द्वार प्रभु का
तरफ जाएगा, तब दायीं तरफ जाने की ऊर्जा इकट्ठी करेगा।
मन बड़ा अदभुत है, बड़ा विरोधाभासी है। घड़ी इससे चलती रहती है, रुकती नहीं। बाएं से दाएं पेंडुलम-घूमता रहता है, घड़ी चलती रहती है। मन चलता रहता है विपरीत के बीच डोलकर। ..
बुद्ध कहते हैं, पेंडुलम को बीच में रोक दो-न बाएं, न दाएं-फिर घड़ी रुक जाएगी। बीच में रोका कि मन गया। न भोग, न त्याग, मज्झिम निकाय। न तो भोगी बनो, न त्यागी बनो। न संसार, न मोक्ष। न धन के दीवाने रहो और न धन को छोड़ने की दीवानगी को पकड़ लो। दोनों के बीच रुक जाओ। धन से कुछ लेना-देना नहीं है। पद से कुछ लेना-देना नहीं है। साक्षी भाव को जगाओ। जागरूक बनकर देखो जो हो रहा है। तुम बीच में रहो। इस बीच में रहने की कला का नाम मज्झिम निकाय है। और जो व्यक्ति बीच में रह जाता है, मुक्त हो जाता है।
अब तुम देखना, तुम अपने जीवन में परख करना, अवलोकन करना, रोज यह होता है—एक अति से दूसरी अति। ज्यादा भोजन कर लिया, उपवास की सोचने लगते। फिर उपवास किया, और उपवास में फिर भोजन की ही सोचते हो-क्या सोचोगे और ! पेंडुलम बाएं गया, दाएं की सोचने लगा; दाएं गया, बाएं की सोचने लगा। उपवास से फिर भोजन में रस आ जाता है। तो उपवास और भोजन विपरीत दिखायी पड़ते हैं, लेकिन एक-दूसरे के साथ सहयोग है, षड्यंत्र है; साझीदार हैं, पार्टनर हैं, एक ही दुकान चलाते हैं।
स्त्री को भोगने में रस है, फिर स्त्री को भोगते-भोगते या पुरुष को भोगते-भोगते विरस पैदा हो जाता है। जिस चीज को भी भोगोगे, उसमें विरस हो जाता है। क्योंकि भोग से कुछ मिलता तो नहीं। तो विषाद पैदा होता है। वैराग्य की बातें उठने लगती हैं—छोड़ दो सब! छोड़कर भागो, बैठोगे जंगल में, आख बंद करोगे और स्त्री खड़ी है, पुरुष खड़ा है। जिसको छोड़ आए, वही फिर आकर्षित करने लगा। फिर नए लुभावने सपने पैदा होने लगे। यह बड़े मजे की बात है, जंगल में जो बैठा है, वह स्त्री के बाबत सोच रहा है; और स्त्री के पास जो बैठा है, वह जंगल की सोच रहा है।
मैं बंबई के कुछ मित्रों को लेकर कश्मीर गया था। जिस नाव में हम ठहरे थे, उस नाव का जो मांझी था, वह रोज मुझसे कहता-बाबा, बंबई दिखला दो! तू क्या करेगा? ये बंबई के सब लोग मेरे साथ आए हुए हैं! वह कहता, क्या रखा है यहां? वह मुझसे कहता, रखा क्या है यहां? मैं तो कभी सोचता हूं कि लोग किसलिए आते हैं यहां, रखा क्या है यहां! बस, आप तो इतना करो कि बंबई दिखला दो। चलते-चलते भी, आखिरी विदा देते भी वह मुझसे कह गया कि बाबा, बस ऐसा आशीर्वाद दो, एक दफा बंबई देख लूं।
जो कश्मीर में बैठा है, वह बंबई देखना चाहता है। जो बंबई में बैठा है, वह कश्मीर जा रहा है। जो जहां है, वहां से विपरीत जाने की आकांक्षा से भरा हुआ है।