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________________ धर्म तुम हो होता है। और वैसे जीवंत अनुभव की अभिव्यक्ति पर सारा अस्तित्व आह्लादित हो उठे, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। और तब उन्होंने यह गाथा कही न तेन पंडितो होति होति यावता बहु भासति । खेमी अवेरी अभयो पंडितोति पवुच्चति।। ‘बहुत भाषण करने से कोई पंडित नहीं होता; बल्कि जो क्षेमवान, अवैरी और निर्भय होता है, वही पंडित है।' यह कथा बड़ी प्यारी है। पहले तो यह बूढ़ा एकुदान क्षीणास्रव था। क्षीणास्रव बौद्धों का पारिभाषिक शब्द है, इसका अर्थ होता है, जिसके आस्रव क्षीण हो गये। चार आस्रव हैं। पहला आस्रव है-कामास्रव। जिसके मन में अब कामना नहीं उठती, जिसके मन में वासना नहीं उठती, महत्वाकांक्षा नहीं उठती; जो अब ऐसा नहीं सोचता, यह कर लूं, वह कर लूं। जिसके मन में करने का रोग चला गया, तो पहला आस्रव क्षीण हो गया। जो अब बस है, करने की धुन नहीं है। तुम देखते हो अपने को, जब भी बैठे, करने की धुन रहती-यह कर लें, वह कर लें। कुछ तो करके दिखा दें, इतिहास में नाम छोड़ जाएं। ऐसे ही आए, ऐसे ही न चले जाएं। हम तो चले जाएंगे लेकिन नाम रह जाएगा, कुछ कर लें, कहीं पत्थरों पर खोद जाएं नाम। हम तो मिट जाएंगे, लेकिन नाम रह जाए। इसका नाम है, कामास्रव। दूसरा आस्रव है-भवास्रव। भवों के लिए कामना। स्वर्ग मिल जाए, मोक्ष मिल जाए, अच्छी योनि मिल जाए कम से कम। जीवन मिले, लंबा जीवन मिले, आयु मिले, मैं होता ही रहूं, सदा होता रहूं; यह हो जाऊं, वह हो जाऊं, इसका नाम भवास्रव। कुछ होते हैं जो करने की धुन में लगे रहते हैं—यह कर लूं, वह कर लूं। कुछ होते हैं जो होने की धुन में लगे रहते हैं कि यह हो जाऊं, वह हो जाऊं। यह दूसरा आस्रव है। जिनका भवास्रव गिर गया, जिनकी होने की धुन गिर गयी, जो कहते हैं-अब जो हूं, हूं; जैसा हूं, हूं; जिनकी जीवेषणा गिर गयी, वे क्षीणास्रव। तीसरा आस्रव है-दृष्टास्रव। दृष्टिराग, शास्त्रराग, सिद्धांतराग। मैं हिंदू हूं, मैं मुसलमान हूं, मैं ईसाई हूं, मैं जैन हूं, मैं बौद्ध हूं, ऐसे जिनके राग पैदा हो जाते हैं। ऐसे राग को बुद्ध कहते हैं, दृष्टास्रव। इनकी बुद्धि निर्मल नहीं रहती। इनकी आंखों पर पर्ते पड़ जाती हैं। फिर अपने ही चश्मे से ये दुनिया को देखते हैं। अगर उन्होंने लाल चश्मा लगा लिया तो सारी दुनिया लाल दिखायी पड़ती है, ये सोचते हैं कि दुनिया लाल है। जिनका दृष्टास्रव भी गिर गया, वे क्षीणास्रव। और चौथा आस्रव है-अविद्यास्रव। मैं हूं, मैं आत्मा हूं, यह है अविद्यास्रव। 27
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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