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एस धम्मो सनंतनो
तुम्हारा, अब मैं समझ गया कि खीर कैसी होती है; तिरछे हाथ की तरह खीर होती है। मैं समझ गया, अब मेरी बात समझ में आ गयी। कोई मुझे समझाए तो मैं समझ जाता हूं, लेकिन समझाते ही नहीं लोग! लोग टाल ही जाते हैं! तब उस पंडित को समझ में आया कि यह समझाना न हुआ, यह तो और हानि की बात हो गयी, यह तो कुछ का कुछ समझ गया!
सत्य को जो जानते हैं, वे कभी न कहेंगे, क्योंकि तुम कुछ का कुछ समझोगे।
बुद्ध के पास एक बार लोग एक अंधे को ले आए थे। क्योंकि अंधा बड़ा जिद्दी था और कहता था कि प्रकाश है ही नहीं। और कहता था, ऐसा भी नहीं है कि मैंने अपने मन को अवरुद्ध कर रखा है। मैं बहुत मुक्त-मन व्यक्ति हूं। लेकिन प्रकाश है ही नहीं और लोग व्यर्थ की झूठी बातें और कपोल-कल्पनाओं में पड़े हैं। अगर प्रकाश है तो मैं छूकर देखना चाहता हूं। स्वभावतः, अंधा छूकर चीजों को देखता है, टटोलकर देखता है। तो वह कहता है, प्रकाश अगर है तो ले आओ, मैं छूकर देख लूं; छू लूं तो मैं मान लूं।
अब प्रकाश को कैसे छुओगे! लेकिन अगर प्रकाश को न छुओ तो क्या इससे यह सिद्ध होता है कि प्रकाश नहीं है? लेकिन अंधे की बात में भी बल है। उसके पास स्पर्श की ही तो इंद्रिय है जिससे वह पहचानता है।
वह कहता है, चलो, स्पर्श न करवा सको, जरा प्रकाश को बजाओ, तो मैं सुन लूं, मेरे कान ठीक हैं। चलो, यह भी न कर सको तो प्रकाश को मेरे मुंह में रख दो, मैं जरा उसका स्वाद ले लूं, मेरी जिह्वा भी ठीक है। यह भी नहीं होता! तो जरा प्रकाश को मेरे नासापुट के पास ले आओ, मुझे गंध बिलकुल ठीक से आती है, मैं उसकी गंध ले लूं। कुछ तो प्रमाण दो! कुछ तो ऐसा प्रमाण दो जो मेरी सीमा और समझ के भीतर पड़ता है।
लेकिन प्रकाश को न संघा जा सकता है, प्रकाश में कोई गंध होती ही नहीं। न प्रकाश को छुआ जा सकता, क्योंकि प्रकाश का कोई रूप नहीं होता, कोई देह नहीं होती, कोई काया नहीं होती। न प्रकाश को चखा जा सकता, क्योंकि प्रकाश में कोई स्वाद नहीं होता। न प्रकाश को बजाया जा सकता, प्रकाश में कोई ध्वनि नहीं होती।
तो अंधा खिलखिलाकर हंसता और वह कहता, फिर क्यों व्यर्थ की बातें करते हो? प्रकाश है ही नहीं। और मैं ही अंधा नहीं हूं, तुम सब अंधे हो। फर्क सिर्फ इतना है कि मैं ईमानदार अंधा हूं, तुम बेईमान अंधे हो। तुम उस प्रकाश की बातें कर रहे हो जो नहीं है, और मैं उसको स्वीकार नहीं करता।
यही तो नास्तिक कहता है आस्तिक से कि मैं ईमानदार आदमी हूं, तुम बेईमान। तुम उस ईश्वर की बातें कर रहे हो जो है नहीं, मैं कैसे मानूं! यही तो गैर-ध्यानी कहता है ध्यानी से कि तुम किस आनंद की बातें कर रहे हो, यह है ही नहीं! हो तो रख दो मेरे सामने। बिछा दो टेबल पर तो मैं परीक्षण कर लूं। यही तो मार्क्स ने कहा है।
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