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अकेला होना नियति है
संगी-साथी छीन लेगी। मौत ही जब तुम्हें अकेला कर देगी तो फिर जीवन के संग-साथ का कितना मूल्य है! दो घड़ी साथ चल लिए थे, रास्ते पर संयोग से मिलना हो गया था— नदी - नाव - व-संयोग । संयोग की बात थी कि तुम एक स्त्री के प्रेम में पड़ गए; संयोग की ही बात थी कि तुम एक बस में सफर करते थे, वह स्त्री मिल गयी; संयोग की बात थी कि तुम्हारे पड़ोस में रहती थी, संयोग की बात थी कि एक ही स्कूल में पढ़ने चले गए थे, संयोग की बात थी प्रेम हो गया, संयोग की बात थी तुम एक-दूसरे से बंध गए और एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी अपने को मानने लगे। एक दिन संयोग टूट जाएगा। जैसे रास्ते पर चलते वक्त कोई मिल जाता है, दो घड़ी साथ चल लेते हैं, फिर रास्ते अलग हो जाते हैं।
मौत सबके रास्ते अलग कर देती है, मौत बड़ी उदघाटक है। मौत चीजों को साफ-साफ कर देती है । जैसी असलियत है वैसा प्रगट कर देती है। हम अकेले हैं, यहां अकेलापन मिटता ही नहीं, न प्रेम से, न मैत्री से, किसी चीज से नहीं मिटता; हम अकेले ही बने रहते हैं। हम चेष्टा कर लेते हैं मिटाने की, अकेलेपन को भुलाने की। लेकिन तुमने कभी खयाल नहीं किया ! कभी तुम्हें याद नहीं आती किसी क्षण में कि हम बिलकुल अकेले हैं! पत्नी पास बैठी है और तुम अकेले हो । बेटा पास खेल रहा है और तुम अकेले हो । पिता पास बैठे हैं और तुम अकेले हो । परिवार में बैठे-बैठे कभी तुम्हें यह याद आयी या नहीं कि तुम बिलकुल अकेले हो, कौन किसका साथी है !
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और इसका यह मतलब नहीं है कि बुद्ध यह कह रहे हैं कि पत्नी का कोई दोष है कि तुम्हें साथ नहीं दे रही है। पत्नी भी अकेली है । बुद्ध यह भी नहीं कह रहे हैं कि इसमें किसी का दोष है। ऐसा मत करना जाकर घर कि अपनी पत्नी को कहो कि तू मुझे प्रेम नहीं करती है, मैं अकेला हूं। अपने बेटे से कहो कि तू मुझे ठीक से प्रेम कर, क्योंकि मैं अकेला हूं।
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नहीं, वे लाख उपाय करें तो भी तुम अकेले हो । अकेला होना नियति है । इसे बदला नहीं जा सकता। इसे हम भुला सकते हैं, छिपा सकते हैं, मगर इससे छुटकारे का कोई उपाय नहीं। यह स्वाभाविक है । मृत्यु इस अकेलेपन को दिखा देती है।
बुद्ध कहते हैं, कोई बचाएगा नहीं, कोई साथ आएगा नहीं, तो इन पर बहुत ज्यादा दारोमदार मत रखो, अभी से अकेले हो जाओ। जो मौत करेगी, उसे तुम अपने हाथ से कर दो। फिर मौत को कुछ भी न बचेगा तुमसे छीनने को । जो मौत छीनेगी, तुम स्वयं दे डालो। यही त्याग का अर्थ है। जो-जो मौत छीन लेगी, तुम स्वयं कह दो कि मेरा नहीं है। मौत छीनेगी तो अपमान होगा। तुम स्वयं दे डालो तो सम्मान है । संसारी और संन्यासी में इतना ही फर्क है । संसारी पकड़े रहता है, मौत उससे जबरदस्ती छीनती है । और संन्यासी भेंट कर देता है।
मगर दोनों में बड़ा फर्क हो गया। जिसने भेंट किया, उस पर मौत का बस नहीं
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