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अकेला होना नियति है
धन कमा लो, वे कहते हैं, टाइम इज मनी। उनके मन में एक ही भगवान है, धन। धन जितना कमा लो उतना ही सार है।
यह युवक निकलता रहा होगा उसी आम्रकुंज के पास से जहां बुद्ध ठहरे हैं, जहां वह अपूर्व दीया जल रहा था, लेकिन इसे रोशनी दिखायी न पड़ी थी। आंखें अंधी हों, सूरज भी निकले तो क्या फर्क पड़ता है। हजारों योजन दूर था। लेकिन आज अचानक मौत ने दूरी छीन ली।
तो खयाल रखना, कभी-कभी आशीर्वाद अभिशाप के रूप में आते हैं। इसलिए अभिशाप को भी एकदम ठुकरा मत देना। कौन जाने अभिशाप में ही वरदान छिपा हो। यह जो मौत आती थी करीब, इसी ने बुद्ध और इस युवक के बीच की दूरी छीन ली। यह युवक शायद अपने ही हाथ से तो कभी यह दूरी न मिटा पाता। कोई आशा नहीं दिखायी पड़ती, कोई आशा की किरण नहीं मालूम होती। यह युवक तो ऐसे ही जीता और ऐसे ही समाप्त हो जाता। इस मौत ने अपूर्व क्रांति कर दी। इस मौत ने उसके सब पुराने जाल को तोड़ दिया। सात दिन ! बस केवल सात दिन! अब सात दिन में न तो महल बनाए जाते हैं, न सुंदरियां खोजी जाती हैं; न कोई अर्थ रहा। सिर्फ सात दिन के लिए कौन इतनी झंझट लेता!
आदमी तो इस भ्रांति में जीता है कि हम सदा रहेंगे। सदा रहने की भ्रांति में ही तो हम सब कुछ करते हैं। हम दुनिया में ऐसे रहते हैं जैसे हमें जाना नहीं, इंच-इंच जमीन के लिए लड़ते हैं, रत्ती-रत्ती धन और पद के लिए लड़ते हैं। ठहरे धर्मशाला में हैं और इस तरह ठहर जाते हैं कि जैसे अपना घर है; अपना निवास है और सदा के लिए अपना निवास यहां होने को है। _वह युवक अब तक तो हजारों योजन दूर था। अब तक उसने देखकर भी बुद्ध को देखा नहीं था। मृत्यु ने आंख की नींद छीन ली, तब भगवान का सत्य उसे प्रगट हुआ। संन्यास पहली दफा अर्थपूर्ण मालूम पड़ा। जैसे अंधे को आंखें मिलीं, जैसे बहरे को कान मिले, वह सुनने और देखने में पहली दफे समर्थ हुआ। जैसे अंधेरे में अचानक बिजली कौंध जाए, ऐसा सब उसे स्पष्ट हो गया। एक तलवार की धार की तरह पुरानी दुनिया कटकर अलग गिर गयी और नयी दुनिया बनाने का, अमृत की तलाश का गहन संकल्प उठा।
अगर मृत्यु है तो अमृत की तलाश करनी है, फिर कोई और जीवन का ढंग खोजना है, कोई और शैली चाहिए। अगर यह घर घर नहीं, धर्मशाला है, तो फिर अपने घर की तलाश पर निकलना होगा। और सात ही दिन बचे हैं! जल्दी करनी
होगी।
मृत्युबोध धर्म का द्वार बन जाता है। उस युवक की चेतना-धारा अचानक बदल गयी। कुछ की कुछ हो गयी दिशा। कहां दौड़ा जा रहा था, धन, पद, प्रतिष्ठा! अचानक गंगा ने मोड़ ले लिया। अब गंगा उस दिशा में नहीं जा रही। उसने रास्ता
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