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________________ आचरण बोध की छाया है परमात्मा के पास पहुंच गए हो, मंदिर करीब है, इसीलिए सुख बज रहा है। इस घड़ी को चूकना मत। इस घड़ी में तो जल्दी से खोजना, कहीं किनारे पर ही, हाथ के बढ़ाने से ही मंदिर का द्वार मिल जाएगा। लेकिन लोग दुख में याद करते हैं, सुख में भूल जाते हैं! दुख में तम मंदिर से बहुत दूर पड़ गए हो, अनंत दूरी है। दुख में तो भरोसा ही नहीं आता कि ईश्वर हो भी सकता है। दुख में कहां भरोसा आ सकता है! दुख में तो ऐसा लगता है, इस संसार में कोई नहीं है। दुख में तो ऐसा लगता है कि यह कोई शैतान चला रहा है इस संसार को। कोई दुष्ट! दुख में तो ऐसा लगता है कि समाप्त कर लो अपने को-न कोई कृतज्ञता, न कोई धन्यवाद का भाव उठता; दुख में कैसे उठे! लेकिन लोग दुख में मंदिर जाते, मस्जिद जाते, भगवान को याद करते, प्रार्थना करते और सुख में भूल जाते। और मैं तुमसे कहता हूं, सुख में ही घटता है। सुख के क्षण में ही तुम करीब से करीब होते हो। उस समय सरक जाना। उस समय लेट जाना जमीन पर साष्टांग, रख देना सिर भूमि पर, ठंडी गीली लान पर लेट जाना, आंख बंद कर लेना, उस क्षण सोच लेना अपने को कि मिल रहे पृथ्वी के साथ, एक हो रहे पृथ्वी के साथ। और तुम पाओगे, कभी-कभी आ जाती है लहर, तरंग की तरह तुम्हारे भीतर प्राणों में कुछ कंप जाता है, कोई नयी बीन बजती। धीरे-धीरे पहचान हो जाएगी। और धीरे-धीरे तुम्हें कला आ जाएगी। तुम धीरे-धीरे पहचानने लगोगे कि कब इसके होने के क्षण होते हैं। कैसी दशा होती है तुम्हारी जब यह निकटता में घट जाती है बात; और कैसी दशा होती है तुम्हारी जब यह मुश्किल होती है बात। फिर तुम पहचान पकड़ जाओगे; तुम्हारी आत्मभिज्ञा, तुम्हारी प्रत्यभिज्ञा, तुम्हारी पहचान धीरे-धीरे साफ होने लगेंगी। पहले तो अंधेरे में टटोलने जैसा है। मगर ध्यान घटता है। और कभी-कभी तो उन लोगों को भी घटता है जिन्होंने ध्यान के संबंध में कुछ सोचा ही नहीं। अधार्मिकों को भी घटता है। क्योंकि ध्यान की कोई शर्त ही नहीं है। छोटे बच्चों को घट जाता है। छोटे बच्चों को ज्यादा घट जाता है, बजाय बड़ों के। एक तितली के पीछे भाग रहा है बच्चा, सुबह का सूरज निकला है, भागा जा रहा है तितली के पीछे, सब भूल जाता है, तितली ही सब हो गयी, उसे याद ही नहीं रहती, खुद भी तितली जैसा उड़ा जा रहा है, उस घड़ी ध्यान की झलक मिल जाती है। लोग जीवनभर याद करते हैं कि बचपन में बड़ा सुख था। किस सुख की याद है यह? क्या तुम सोचते हो बचपन में तुम्हारे पास बहुत धन था? नहीं था, जरा भी नहीं था, दो-दो पैसे के लिए रोना पड़ता था! एक-एक पैसे के लिए बाप और मां के मोहताज होना पड़ता था! धन तो नहीं था। कोई बड़ा पद था? कहां से होता पद! सब तरह की झंझटें थीं, स्कूल कारागृह था, जहां रोज-रोज बांधकर भेज दिए जाते 233
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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