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________________ आचरण बोध की छाया है और पहले अनुभव के बाद फिर अनुभव आसान हो जाते हैं। आसान इसलिए हो जाते हैं कि तब तुम्हें एक बात समझ में आ जाती है कि सीधे-सीधे ध्यान को पाने का कोई उपाय नहीं है, परोक्ष मार्ग है। तुम शिथिल रहो, आहिस्ता से चलो, आपाधापी छोड़ो, एक घंटे के लिए कम से कम चौबीस घंटे में लीन हो जाओ प्रकृति में, संगीत सुनो, कि पक्षियों के गीत सुनो; कुछ न हो करने को, आंख बंद कर लो, अपनी सांस सुनो। बुद्ध ने तो इस पर बहुत जोर दिया। अपनी सांस को ही देखते रहो – आयी, गयी, आयी, गयी — इसकी माला बना लो, इससे बेहतर कोई माला नहीं है। हाथ में माला लेकर फेरोगे, वह तो बहुत जड़ माला है। यहां जीवित श्वास चल रही है, श्वास की माला फेरी जा रही है - श्वास भीतर आयी, बाहर गयी, श्वास भीतर आयी, बाहर गयी - यह जो भीतर चक्र चल रहा है, मंडल श्वास का, इसको ही देखते रहो; शांत, मौन से इस पर ही टकटकी बांधे रहो और तुम हैरान हो जाओगे, किसी बहुमूल्य मुहूर्त में कभी ताल बैठ जाता है, अचानक सब एक हो जाता है, तुम मिट गए, संसार मिट गया। पहले-पहले तो क्षणभर को ऐसी झलकें आएंगी, खो जाएंगी। जब खो जाएं तो फिर उनकी तीव्रता से आकांक्षा मत करना, अन्यथा वे कभी न आएंगी। जब खो जाएं, तो कहना ठीक; अब जब फिर दुबारा आएंगी, फिर भोगेंगे। मगर उनके आने के लिए द्वार - दरवाजे खुले रखना । ऐसा ही समझो कि सूरज बाहर निकला है, तुम अपने कमरे में दरवाजा बंद किए बैठे हो, रोशनी भीतर नहीं आती। अब सूरज को कोई गट्ठर में बांधकर भीतर लाने का उपाय भी तो नहीं है! सूरज की किरणों को कोई गाय-बैल जैसा हांककर भीतर लाने का उपाय भी तो नहीं है ! क्या करोगे ? दरवाजा खोल दो, सूरज की किरणें अपने से भीतर आ जाती हैं। कभी-कभी रात होगी और नहीं आएंगी, क्योंकि सूरज नहीं है। कभी-कभी दिन होगा और आएंगी, क्योंकि सूरज है। कभी-कभी दिन भी होगा और बादल घिरे होंगे और नहीं आएंगी, क्योंकि सूरज बादलों में ढंका है। मगर कभी-कभी मौके मिलेंगे जब दिन है, बादल भी नहीं हैं, सूरज प्रगट है, तो किरणें भीतर आएंगी। तुम ज्यादा से ज्यादा बाधा न दो, बस इतना ही काफी है। मेरी बात को खयाल में ले लेना । ध्यान को सीधा-सीधा नहीं किया जाता, बाधा दो। इसीलिए तो मैं कहता हूं, नाचो, गाओ। नाचने और गाने में तुम लीन हो जाओ, अचानक तुम पाओगे, हवा के झोंके की तरह ध्यान आया, तुम्हें नहला गया, तुम्हारा रोआं- रोआं पुलकित कर गया, ताजा कर गया । धीरे-धीरे तुम समझने लगोगे इस कला को— ध्यान का कोई विज्ञान नहीं है, कला है। धीरे-धीरे तुम समझने लगोगे कि किन घड़ियों में ध्यान घटता है, उन घड़ियों में मैं कैसे अपने को खुला छोड़ दूं। जैसे ही तुम इतनी सी बात सीख गए, तुम्हारे हाथ में कुंजी आ गयी। 231
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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