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________________ एस धम्मो सनंतनो किसलिए पकडूं? इस शरीर की यह गति हो जाने वाली है। इसको अपने प्रियजन जिनको मैं कहता हूं, वे ही कंधे पर रखकर ले आएंगे और आग में समर्पित कर जाएंगे, पीछे कोई बैठेगा भी नहीं कि क्या होता होगा मेरे प्राण-प्यारे का! भिक्षु बैठा देखता। आग बुझ जाती; जानवर आ जाते, बचे-खुचे अंगों को तोड़ लेते-गर्दन ले भागते, हाथ ले भागते-ऐसा मेरा भी होगा! ऐसा होने ही वाला है! जिनको हम प्रिय कहते हैं, उनका संग-साथ भी तब तक है जब तक जीवन है। इधर जीवन गया, वहां सब प्रेम, मैत्री, सब संबंध गये। जिन्होंने बड़ी साज-सम्हाल की थी देह की, वे ही उसे चिता पर रख गये। बैठे भी नहीं थोड़ी देर! रुके भी नहीं थोड़ी देर! दुनिया में और हजार काम हैं। __तुम देखते न, कोई आदमी मर जाता है, कितनी जल्दी अर्थी बांधी जाती है! घर के लोग रोने-धोने में लग जाते हैं, पास-पड़ोस के लोग जल्दी से अर्थी बांधने लगते हैं—साथ तो देना ही चाहिए। उठी अर्थी, चली अर्थी, दो-चार दिन में रोना-धोना-पीटना सब बंद हो जाता है, संसार अपनी जगह चलने लगता है। ऐसा भिक्षु बैठा देखता रहता है, ध्यान करता रहता है। और बुद्ध ने कहा था, स्मरण करते रहना-सब्बे संखारा अनिच्चाति, सब्बे संखारा दुक्खाति, सब्बे धम्मा अनित्ताति। सोचते रहना–यहां कुछ स्थिर नहीं, कुछ ठहरा हुआ नहीं, कहीं कोई आत्मा नहीं, कहीं कोई सुख नहीं; यह सब स्वप्नवत है। और स्वप्न भी दुखस्वप्न हैं। ऐसा तीन महीने, छह महीने, नौ महीने! बुद्ध ने कहा, जब तक ये तीन धारणाएं गहरी न उतर जाएं तब तक लौटना मत। ये तीन धारणाएं गहरी हो जाती तो ध्यान बड़ा सुगम हो जाता। बुद्ध ने ध्यान की बड़ी वैज्ञानिक व्यवस्था की थी। यह सूत्र-संदर्भ का पूर्वार्द्ध था। अब उत्तरार्द्ध भगवान से नवदृष्टि ले, उत्साह से भरे वे भिक्षु पुनः अरण्य में गये। उनमें से सिर्फ एक जेतवन में ही रह गया। चार सौ निन्यानबे गये इस बार, पहले पांच सौ गये थे। एक रुक गया। वह आलसी था और आस्थाहीन भी। उसे भरोसा नहीं था कि ध्यान जैसी कोई स्थिति भी होती है! __वह तो सोचता था, यह बुद्ध भी न-मालूम कहां की बातें करते हैं! कैसा ध्यान! आलस्य की भी अपनी व्यवस्था है तर्क की। आलस्य भी अपनी रक्षा करता है। आलसी यह न कहेगा कि होगा, ध्यान होता होगा, मैं आलसी हूं। आलसी कहेगा, ध्यान होता ही नहीं। मैं तो तैयार हूं करने को, लेकिन यह ध्यान इत्यादि सब बातचीत है, यह कुछ होता नहीं। आलसी यह न कहेगा कि मैं आलसी हूं इसलिए परमात्मा को नहीं खोज पाता हूं, आलसी कहेगा, परमात्मा है कहां! होता तो हम कभी का 206
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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