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________________ एकांत ध्यान की भूमिका है जीवन का लक्षण क्या है? बढ़ाव, वृद्धि। वर्द्धमान होना जीवन का लक्षण है। हमने एक मुर्दा दुनिया बना ली है-मशीनें बढ़ती नहीं, मकान बढ़ते नहीं, सीमेंट के रास्ते बढ़ते नहीं, सब मुर्दा है। सब ठहरा हुआ है। इस ठहरे हुए में हम जी रहे हैं, हम भी ठहर गये हैं। जिनके साथ हम रहते हैं, वैसे ही हम हो जाते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो आदमी मशीनों के साथ काम करता है, धीरे-धीरे मशीन ही हो जाता है। हो ही जाता है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। हमारा कृत्य धीरे-धीरे, धीरे-धीरे हमारी आदतें बना देता है। वही हमें घेर लेता है। आदमी ने जो एक लोहे और सीमेंट की दुनिया बनायी है, वह बड़ी खतरनाक है। वहां आदमी के हस्ताक्षर तो मिलते हैं, लेकिन परमात्मा की कोई खबर नहीं मिलती। परमात्मा को खोजने के लिए, परमात्मा की थोड़ी झलक के लिए प्रकृति के करीब जाना उपयोगी है। क्योंकि वहां सब कुछ नाचता हुआ है, अभी भी जीवित है। अभी भी वृक्ष बढ़ते हैं, अभी भी फूल खिलते हैं। ___ शहरों में तो आकाश दिखायी ही नहीं पड़ता। महानगरों में तो चांद-तारे ऊगते कि नहीं, पता ही नहीं चलता। महानगरों में सूरज अब भी आता है कि जाता है, कब आता है, कब जाता है, किसी को खबर नहीं होती। जीवन का जो भी श्रेष्ठ है, सुंदर है, उसकी तरफ आंखें बंद हो गयी हैं। अपनी आंखें गड़ाए हम भागे जाते हैं, घर से दफ्तर, दफ्तर से घर। एक मकान से दूसरे मकान में भागते रहते हैं। चारों तरफ भीड़ है, आदमी ही आदमी हैं, चारों तरफ पागलपन है, चारों तरफ उपद्रव है, दंगे-फसाद हैं और चारों तरफ आदमी की बनायी हुई झूठी, कृत्रिम दुनिया है। इस झूठ में अगर परमात्मा मर गया हो या परमात्मा का पता न चलता हो तो कुछ आश्चर्य तो नहीं। इस सदी में अगर परमात्मा सबसे कम मौजूद है, तो उसका कुल कारण इतना है कि आदमी बहुत मौजूद हो गया है। और आदमी ने सब तरफ अपना इंतजाम कर लिया है। सब तरफ से परमात्मा को खदेड़कर बाहर कर दिया है। परमात्मा का निष्कासन कर दिया गया है। उसे दूर फेंक दिया गया है, रहे कहीं हिमालय में, रहे कहीं पहाड़ों में, रहे कहीं जंगलों में। बुद्ध अपने भिक्षुओं को भेजते थे अरण्य में कि चले जाओ। और उन दिनों तो आदमी इतना मजबूत नहीं था जितना आज है, और उन दिनों तो नगर इतने विकृत न हुए थे जितने आज हैं, फिर भी बुद्ध भेजते थे जंगलों में। उन्होंने भी वृक्षों और नदियों के किनारे बैठकर उसकी झलक पायी थी। तो उन्होंने भेजा। प्रकृति-सान्निध्य अपूर्व रूप से सहयोगी है। मंदिर भी तुम्हारे उतनी खबर नहीं देते परमात्मा की, न तुम्हारी मस्जिद, न तुम्हारे गुरुद्वारे, जितनी खबर एक वृक्ष देता है। जीवंतता, बढ़ाव, फैलाव। वृक्ष को देखते हो? अपूर्व है। इतना रहस्यमय है! एक गहरा जगत अपने भीतर छिपाए हुए है। उसके भी बड़े सपने हैं आकाश को छूने के। उसकी भी बड़ी 197
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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