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एकांत ध्यान की भूमिका है
भीड़ बाहर हो, न भीड़ भीतर हो। दूसरे की मौजूदगी भीड़ है-वस्तुतः या विचारतः। दूसरे की अनुपस्थिति एकांत है।
अगर तुम बाजार में, भीड़ में बैठे हुए एकांत साध पाओ, तो इससे सुंदर कुछ भी नहीं। अगर यह कठिन हो शुरू-शुरू में, तो कभी-कभी समय निकालकर पहाड़ पर चले जाओ, जंगल में चले जाओ-वर्ष में कुछ दिन अकेले में बिताओ, जहां बिलकुल भूल जाओ कि कोई दूसरा है भी। जहां तुम एकमात्र बचो। जहां कोई बोलने को न हो, जहां कोई विचारने को न हो, जहां दूसरा तुम्हारी सीमा न बनाता हो, वहां तुम असीम हो जाओगे।
एकांत ध्यान की भूमिका है।
प्राथमिक भूमिका है। शुरू-शुरू में सभी को सहयोग मिलता है। लेकिन इस एकांत से जो ग्रसित हो जाते हैं, उन्होंने भूमिका का उपयोग न किया, भूमिका उनके लिए फांसी बन गयी। कुछ लोग जंगल जाते, फिर लौटने में डरने लगते हैं।
एकांत में जाना जरूर, लेकिन एकांत लक्ष्य नहीं है। एकांत तो केवल प्राथमिक भूमिका है। आना तो लौटकर यहीं है। परीक्षा तो यहीं होगी। अगर एकांत में जाकर अच्छा लगा और तुम उस अच्छे लगने के कारण वहीं बस रहे और तुम डरने लगे कि अब भीड़ में जाएंगे तो ध्यान टूट जाएगा, तो ध्यान तुम्हारा लगा ही नहीं। जो भीड़ में जाने से टूट जाए, वह ध्यान नहीं है। - ध्यान का तो अर्थ ही यही है कि अब तुम इतने सबल हो गये कि अब अगर तुम भीड़ में भी आओगे, तो भी कोई अंतर न पड़ेगा। भीड़ हो या न हो, तुम्हारे भीतर अब भीड़ नहीं हो सकती, तुम इतने तो जाग गये।
हां, शुरू-शुरू में उपयोगी हो सकता है। हम पौधे को लगाते हैं, तो शुरू-शुरू में उसके पास बागुड़ लगा देते हैं। अभी कमजोर है, अभी कोमल है, अभी जरा सी चीज से टूट जाएगा-हवा का बड़ा झोंका आ जाए, कि कोई जानवर आ जाए, कि कोई बच्चा उखाड़ ले। जल्दी ही पौधा बड़ा हो जाएगा, पौधा बागुड़ के ऊपर निकल जाएगा, फिर बागुड़ हम हटा देंगे-अब कोई हर्जा नहीं है, अब पौधे की अपनी जड़ें फैल गयी हैं जमीन में, अब वह अपने पैरों खड़ा हो गया, अब आकाश से होड़ लेगा, बड़ी हवाओं से टक्कर लेगा; अब आए जिसे आना हो, अब कोई अंतर नहीं पड़ेगा। ऐसा ही ध्यान है। शुरू में कोमल तंतु होते ध्यान के, तब एकांत उपयोगी है। ___ इसलिए बुद्ध ने एकांत में भेजा, अरण्य में भेजा, कहा-जंगल चले जाओ। अव्यस्तता ध्यान का द्वार है। ___ और जंगल में अव्यस्त हो जाना आसान होगा, करने को कुछ बचेगा नहीं। भीड़-भाड़ में तो अब करने को हजार बातें हैं, करना ही करना, सुबह से सांझ तक करना ही करना, हम उसमें डूब ही जाते हैं। करने की बाढ़ है, मौका ही नहीं मिलता
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