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सौंदर्य तो है अंतर्मार्ग में
मैं तो सिर्फ जो मैंने जाना है, जैसे मैंने जाना है, उतना तुमसे कह दूंगा, फिर यात्रा तो तुम्हें ही करनी होगी। चलना तो तुम्हें ही होगा, तुम्हारे ही पैरों से चलना होगा। तुम्हारी ही आंखों से तुम्हें देखना होगा। मेरे खाए तुम्हारा पेट न भरेगा और न मेरे देखे तुम्हारा दर्शन खुलेगा। मेरे चले तुम कैसे चलोगे! इस सत्य की यात्रा पर प्रत्येक को अपने ही पैरों से जाना होता है। यह यात्रा बड़ी अकेली है। एक-एक की है। हां, बुद्धपुरुष इशारा कर सकते हैं, नक्शा दे सकते हैं, समझा सकते हैं, क्योंकि जहां से वे चले हैं उन मार्गों की तुम्हें खबर दे सकते हैं।
पटिपन्ना पमोक्खंति झायिनो मारबंधना।
इस मार्ग पर अगर तुम आरूढ़ हो जाओ, इस भीतर के मार्ग पर तुम ध्यानपरायण हो सको, तो मार के बंधनों से मुक्त हो जाओगे। तो यह मन तुम्हारा जो शैतान की तरह तुम्हें बाहर भटका रहा है, इससे तुम्हारा छुटकारा हो सकता है। लेकिन चलना होगा; श्रम करना होगा। और यह ऊर्ध्वगमन है, जैसे पहाड़ पर कोई ऊपर चढ़ता है, यह कष्टसाध्य है। पहाड़ से कोई नीचे उतरता है, इतना कष्टसाध्य नहीं है। इसीलिए तो वासना आसान है, समाधि कठिन है।
वही ऊर्जा वासना में जाती है, वही ऊर्जा समाधि में, लेकिन समाधि कठिन है। क्योंकि समाधि में ऊपर की तरफ यात्रा करनी होती है, और वासना में नीचे की तरफ। जैसे पत्थर को धक्का दे दो पहाड़ पर, अपने आप फिसलता हुआ, गिरता हुआ, लुढ़कता हआ खाई-खंदकों में पहुंच जाएगा। लेकिन इतना सा धक्का देने से पहाड़ की चोटी पर नहीं पहुंच जाएगा। चोटी पर तो ले जाने में श्रम करना होगा, पसीना बहेगा। इस श्रम करने के कारण ही बुद्ध ने अपने मार्ग को श्रमण कहा है।
भारत में दो संस्कृतियां हैं। एक संस्कृति का नाम ब्राह्मण-संस्कृति, एक संस्कृति का नाम श्रमण-संस्कृति। दोनों का मौलिक भेद इतना ही है, ब्राह्मण-संस्कृति की मान्यता है कि प्रभु के प्रसाद से मिलता है सब। तुम प्रार्थना करो, प्रभु की अनुकंपा होगी तो मिलेगा। श्रमण-संस्कृति का कहना है, कोई प्रभु नहीं है देने वाला, तुम श्रम करो तो मिलेगा। इसलिए ब्राह्मण-संस्कृति में प्रार्थना केंद्रीय है और श्रमण-संस्कृति में ध्यान केंद्रीय है।
सुनते हो, बुद्ध कहते हैं
पटिपन्ना पमोक्खंति झायिनो मारबंधना।
'इस मार्ग पर आरूढ़ होकर ध्यानपरायण पुरुष...।' हिंदू-संस्कृति या ब्राह्मण-संस्कृति कहती है, ईश्वरपरायण बनो; बुद्ध कहते हैं,
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