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________________ एस धम्मो सनंतनो ‘मार्गों में अष्टांगिक मार्ग श्रेष्ठ है। सत्यों में चार पद (चार आर्य-सत्य) श्रेष्ठ हैं। धर्मों में वैराग्य श्रेष्ठ है। और द्विपदों में मनुष्यों में-चक्षुष्मान, आंख वाले (बुद्ध) श्रेष्ठ हैं।' बड़ा प्यारा सूत्र है। मग्गानटुंगिको सेट्ठो। बहुत मार्ग हैं भीतर आने के, लेकिन बुद्ध कहते हैं, अष्टांगिक मार्ग उसमें श्रेष्ठ है। तुम बाहर के मार्गों की बातें कर रहे हो कि कौन सा रास्ता अच्छा है, अरे पागलो, अष्टांगिक मार्ग श्रेष्ठ है। भीतर आने के बहुत मार्गों में आठ अंगों वाला मार्ग श्रेष्ठ है। वे आठ अंग निम्न हैं सम्यक-दृष्टि, पहला अंग। सम्यक-दृष्टि का अर्थ होता है, दृष्टियों से मुक्ति। पक्षपात से मुक्ति। आंखें खाली हों। कोई भाव न हो, कोई विचार न हो; कोई सिद्धांत, कोई शास्त्र न हो: कोई मत न हो। खली निष्पक्ष आंख हो, निर्दोष आंख हो-जैसे दर्पण खाली—तो सत्य दिखायी पड़ेगा। तो सत्य कैसे बचेगा? लेकिन दर्पण पर अगर कोई धूल पड़ी हो, कोई पक्ष पड़ा हो, रंग पड़ा हो, तो फिर सत्य जैसा है वैसा दिखायी न पड़ेगा। सम्यक-दृष्टि का अर्थ होता है, दृष्टियों का अभाव। जब सब दृष्टियां छूट जाती हैं-हिंदू की दृष्टि, मुसलमान की दृष्टि, ईसाई की दृष्टि-जब सब दृष्टियां छूट जाती हैं और कोई दृष्टिशून्य खड़ा होता है, निर्वस्त्र, नग्न, सारी दृष्टियों से मुक्त, तब सत्य को जाना जाता है। यह पहला अंग। दूसरा अंग, सम्यक-संकल्प। हठ नहीं, औद्धत्य नहीं, जिद्द नहीं। अधिक लोग संन्यासी हो जाते जिद्द से, हठ से, औद्धत्य से, अहंकार से। तुम्हें अक्सर जिद्दी लोग संन्यासियों में मिलेंगे। दुर्वासा की कहानी तो तुम जानते ही न! जिद्दी आदमी कुछ भी कर सकता है। कुछ न कर पाए, संन्यासी हो जाता है। बुद्ध कहते हैं, यह संकल्प नहीं हुआ। यह तो अहंकार का ही सूक्ष्म रूप है। सम्यक-संकल्प। ठीक-ठीक संकल्प का अर्थ यह है, किसी जिद्द के कारण संन्यास नहीं, बोध के कारण संन्यास, समझ के कारण संन्यास, होश से, जीवन की प्रौढ़ता से। जीवन को सब तरफ से परख कर, परिपक्वता से। संकल्प तो हो, लेकिन जिद्दी संकल्प नहीं चाहिए। आग्रहपूर्वक नहीं चाहिए। निराग्रही संकल्प। ____ फर्क समझना। मेरे पास एक युवक आया और उसने कहा कि मैं तो संन्यास लेकर रहूंगा। मैंने पूछा, बात क्या है? संन्यास किसलिए लेना है? उसने कहा कि मेरे पिता इसके खिलाफ हैं। मतलब समझे आप? पिता खिलाफ हैं, इसलिए वह लेना चाहता है। वह कहता है, मैं लेकर रहूंगा। मैंने उसको समझाया कि अगर तेरे पिता खिलाफ न हों, फिर तू लेगा? उसने कहा, फिर मैं सोचूंगा। 146
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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