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एस धम्मो सनंतनो
से
बाहर की तरफ जाते हैं। स्वभावतः, बुद्धिहीन ही बाहर की तरफ जाएगा, क्योंकि बाहर कुछ मिलता तो नहीं है, सिर्फ भटकावा और भटकावा । मिलता तो भीतर है। तो ऐसा ही समझो कि कोई आदमी कंकड़-पत्थरों को बीनता रहे, तो उसको तुम बुद्ध ही कहोगे न ! जिनसे कुछ भी न मिलेगा। कोई मधुमक्खी कंकड़-पत्थरों पर बैठी रहे और सोचे कि मधु मिल जाएगा, तो पागल कहोगे न! फूलों पर मिलता मधु । ऐसे ही भीतर है आनंद । वह फूल तुम्हारे भीतर है, जहां तुम्हारे जीवन का मधु संचित है। तुम्हारा भौंरा जब भीतर उड़ेगा, भीतर गुनगुन करेगा और भीतर के कमल पर बैठेगा, तब तुम भरोगे रस से, तब रसधार बहेगी।
तो बुद्धिमान तो भीतर की तरफ जाता, बुद्धिहीन बाहर की तरफ जाता। इसलिए भीतर की यात्रा को बुद्ध कहते हैं, आर्यमार्ग । श्रेष्ठजन का मार्ग। यहां आर्य से आर्यजाति का कोई संबंध नहीं है, यहां आर्य से श्रेष्ठ शब्द का प्रयोजन है।
छाया है आर्यमार्ग में, सरोवर भी वहीं है, वहीं शरण खोजो। वहीं मिटेगी प्यास, और कहीं नहीं। भिक्षु को आर्यमार्ग में ही लगना चाहिए, क्योंकि वहीं दुख-निरोध है, वहीं दुख-निरोध का मार्ग है।
बुद्ध की सारी उपदेशना कैसे दुख निरुद्ध हो जाए, इसकी है। इस संबंध में एक बात समझ लेनी जरूरी है, इसके पहले कि हम सूत्रों में प्रवेश करें।
वेदांत आनंद की बात करता है, उपनिषद आनंद की बात करते हैं, वेद आनंद के गीत गाते हैं। लेकिन बुद्ध आनंद की बात नहीं करते। बुद्ध दुख-निरोध की बात करते हैं। यह बात बड़ी बहुमूल्य है । बुद्ध कहते हैं, आनंद की तो बात करने की जरूरत ही नहीं है। बस तुम दुख पैदा करने के आयोजन छोड़ दो, आनंद तो पैदा हुआ ही है। आनंद तो तुम्हारा स्वभाव है। आनंद तो तुम लेकर ही आए हो । आनंद तो है ही, आनंद को पाना थोड़े ही है, इसलिए उसकी क्या बात करनी ! सिर्फ दुख न रह जाए तो आनंद घट जाता है, घटा ही हुआ है।
तो इसलिए बुद्ध का पूरा मार्ग निषेध का मार्ग है, नकार का मार्ग है। सिर्फ उतनी बातें तुम हटा दो जिनसे दुख पैदा होता है और अचानक तुम पाओगे कि आनंद मौजूद था, दुख पैदा होने के कारण दिखायी नहीं पड़ता था । दुख के जाते ही सब तरफ आनंद ही आनंद के दर्शन हो जाएंगे, सब तरफ आनंद की धार बहने लगेगी।
बुद्ध क्यों आनंद की सीधी बात नहीं करते ? वह कहते हैं, आदमी बड़ा नासमझ है। तुम जब आनंद की बात करते हो कि ब्रह्म आनंद है, सच्चिदानंद है, तो आदमी सोचता है, चलो आनंद को पाने की कोशिश करें। वह दुख को मिटाने की कोशिश तो करता ही नहीं, आनंद को पाने की कोशिश में लग जाता है। और आनंद मिलता नहीं दुख को मिटाए बिना। तो दुख को तो वह भूल ही जाता है, दुख की तो बात ही नहीं करता है, दुख के रास्ते पर तो चलता ही रहता है और आनंद की वासना करने लगता है कि आनंद कैसे मिले? कारण बने रहते बीमारी के और वह स्वास्थ्य की
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