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________________ एस धम्मो सनंतनो इसलिए खयाल रखना, यह मत सोचना कि तुमने महल छोड़ दिया और कुटिया में रहने लगे, तो तुम्हारी संपत्ति पर मोह की स्थिति कम हो गयी। इससे कुछ फर्क न पड़ेगा। वह मोह जो महल पर लगा था, झोपड़ी पर लग जाएगा । तिजोड़ी छोड़ और लंगोटी हाथ में रह गयी, तो जो तिजोड़ी पर लगा था वह लंगोटी पर लग जाएगा। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे पास कितनी चीजें हैं। चीजों की संख्या से तुम्हारे परिग्रह का कोई संबंध नहीं, परिग्रह तो भाव की दशा है। परिग्रह से मुक्ति तो समझ से होती है कि मेरा यहां कुछ भी नहीं है, ज्यादा से ज्यादा मैं उपयोग कर सकता हूं, फिर सब पड़ा रह जाएगा। परिग्रह का छुटकारा वस्तुओं के छोड़ने से नहीं होता। अब ये भिक्षु सब छोड़कर आ गए हैं। इनमें बहुत बड़े-बड़े घरों के लोग थे । क्योंकि बुद्ध खुद राजा के बेटे थे तो राजपरिवारों के लोग उत्सुक हुए। स्वाभाविक । बुद्ध का संबंध राजपरिवारों से था, मित्रता राजपरिवारों से थी, राजकुमारों के साथ पढ़े-लिखे बड़े हुए थे, उनका संपर्क देश के श्रेष्ठतम वर्ग से था, संपन्नतम वर्ग से था। तो जब बुद्ध संन्यस्त हुए, तो इस देश का जो श्रेष्ठतम संपन्न वर्ग था, उसके बेटे-बेटियां बुद्ध के साथ चल पड़े। स्वाभाविक । अब रैदास के साथ कोई राजा नहीं हो जाता संन्यासी ! रैदास के साथ चमार ही संन्यासी होते हैं । स्वाभाविक । बुद्ध जब संन्यस्त हो गए तो एक लहर फैली, एक हवा फैली। बुद्ध का जिनसे संबंध था, वे भी चल पड़े। बड़े घरों से लोग आए थे, सब छोड़कर आए थे, न मालूम कितना धन, न मालूम कितना पद छोड़कर आए थे, लेकिन एक-एक चीवर के लिए लड़ने लगे। एक-एक चीवर को बचाकर रखने लगे। रात अपना चीवर टटोलकर देख लेते थे कि कोई चुराकर तो नहीं ले गया। अपने भिक्षापात्र पर ऐसा मोह करने लगे कि जैसे यह कोई साम्राज्य हो । आदमी अदभुत है। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा आंगन कितना बड़ा है। छोटा हो तो उसमें तुम उतने ही लग जाते हो, बड़ा हो तो उतने ही लग जाते हो। इसलिए बड़े आंगन और छोटे आंगन की चिंता मत करना, चित्त को बदलना । फिर वह भिक्षु कह रहा था, दान देने वाले अब रहे ही नहीं । अब कहां वे पुराने दिनों की बातें | वह स्वर्णयुग अब न रहा, जब लोग देना जानते थे ! और सभी शास्ताओं ने दान देने को धर्म का मूल कहा है। अब यह भी समझने जैसी बात है। शास्ताओं ने धर्म को दान के साथ पर्यायवाची कहा है, निश्चित कहा है, लेकिन इसका मतलब बड़ा अनूठा लिया लोगों ने। तुम भी देखते न, भिखारी द्वार पर आकर खड़ा हो जाता है। वह कहता है, धर्म का मूल दान, लोभ पाप का बाप बखाना; दो, क्योंकि देना धर्म का मूल है। अगर दो तो धार्मिक, अगर न दो तो अधार्मिक | मैंने सुना है, एक गांव में एक महाकंजूस था। उसने कभी किसी को दान न 138
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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