________________ एस धम्मो सनंतनो दो तो सार्थक में एक ज्योतिर्मयता आ जाती है, एक गहराई आ जाती है, एक प्रगाढ़ता आ जाती है। भिक्षु को तो मितभाषी होना चाहिए। उसको तो एक-एक शब्द तौलकर बोलना चाहिए। उसे तो एक-एक शब्द में त्वरा, अपने प्राण डालने चाहिए। भिक्षु अनावश्यक नहीं बोलेगा। एक शब्द नहीं बोलेगा, एक विराम चिह्न नहीं लगाएगा अनावश्यक। जितना अत्यंत जरूरी है, बस उतना। और उसी घड़ी रुक जाएगा। __तो पहली तो बात, ये भिक्षु बैठे हैं आसनशाला में, पांच सौ भिक्षु, बातें कर रहे हैं। बाजार पैदा कर दिया होगा! पांच सौ लोग बातें कर रहे हों, तो बाजार हो गया होगा! ये बाजार में ही रहे हैं अब तक। भिक्षु भी हो गए हैं, लेकिन बाजार छूटता नहीं। बाजार इनके साथ चला आया है, बाजार इनके हृदय में बैठा है। बाहर भागने से कुछ भी नहीं होता है जब तक भीतर रूपांतरण न हो। भाग जाओ हिमालय पर, करोगे क्या? हिमालय की गुफा में बैठकर भी सोचोगे अपनी दुकान की ही बात। सोचोगे तो वही तुम जो हो। इसलिए असली सवाल कहीं जाने का नहीं है, असली सवाल तो भीतर से दृष्टि-रूपांतरण का है, चित्त के बदलाहट का है, बोध के नए करने का है। बातें कर रहे हैं, यह बात ही नहीं जंचती। और फिर बुद्ध की मौजूदगी में! चलो अकेले होते, बद्ध मौजद न होते और ये बातें करते, तो भी चलता; क्षम्य थे। आखिर आदमी हैं। कभी-कभी बात करने का मन इनका भी हो जाता है। भिक्षु हैं तो भी क्या, आदमी आखिर आदमी है। बतियाना चाहता है, सुख-दुख कहना चाहता है। लेकिन बुद्ध की मौजूदगी में! जहां बुद्ध मौजूद हों, वहां एक अपूर्व प्रसाद बरस रहा है; तुम अपनी बकवास में उस प्रसाद से वंचित रह जाओगे। वहां बुद्ध बरस रहे हैं और तम किसी और काम में लगे हो! बुद्ध की मौजूदगी में तो सब काम रुक जाने चाहिए। तुम्हारे चित्त के सब व्यापार रुक जाने चाहिए। तुम्हारा हृदय तो सिर्फ बुद्ध के लिए खुला होना चाहिए। बुद्ध की मौजूदगी में तो वैसा ही होना चाहिए, जैसा तुमने सूरजमुखी का फूल देखा है न! जिस तरफ सूरज होता है उसी तरफ घूम जाता है। शिष्य को तो गुरु की तरफ सूरजमुखी का फूल जैसा हो जाना चाहिए। ___इन्होंने तो पीठ कर दी! ये तो भूल ही गए, इन्हें तो याद ही न रहा, ये तो अपनी बातचीत में इतने तल्लीन हो गए; बातचीत ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी, बुद्ध कम महत्वपूर्ण हो गए, बातचीत के धुएं में बुद्ध की ज्योति खो गयी। इन्होंने बातों का इतना धुआं खड़ा कर दिया, इतने बादल खड़े कर दिए कि इन्हें याद ही न रहा कि ये किसकी मौजूदगी में हैं। ये कहां बैठे हैं! संन्यासी को स्मरण होना चाहिए। नहीं तो संन्यास कैसा! आश्चर्य कि उनकी बातचीत और साधारणजनों जैसी ही है। उनकी बातचीत को 134