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जागरण ही ज्ञान
आरजू-मिन्नतें कीं, मित्रों को कहा, मजिस्ट्रेट को कहा, किंतु कोई काम नहीं आया, कोई काम नहीं हुआ। वह जानता था कि वह निर्दोष है, किंतु फिर भी अपने को बचा नहीं पा रहा था ।
उसी बीच जब उसके दुख के उसकी आंखों में आंसू थे, एक सर्प ने उसे काट खाया। सर्प के काटते ही एक चीख उसके मुंह से निकली और वह जग गया। और उसने पाया कि वह तो बिलकुल ठीक है, और आराम से अपने बिस्तर पर है। न कोई चोरी की है, न कोई मजिस्ट्रेट है, न कोई जेल है, न कोई सजा है।
वह बहुत हंसने लगा। वह तो कभी बंदी था ही नहीं । उसका बंदी होना, उसकी आरजू-मिन्नतें, मित्रों, मजिस्ट्रेटों से, जेलर से प्रार्थनाएं, सब स्वप्न थे । वह सांप भी स्वप्न ही था जिसने उसे काटा, पर उसमें अन्य वस्तुओं से थोड़ी सी भिन्नता थी । उसने उसे जगा दिया। जागने पर वह सांप भी असत्य हो गया। लेकिन उसमें जगाने की सामर्थ्य थी। जेल भी झूठ था, सांप भी झूठ था, चोरी भी झूठ थी, मित्र और मजिस्ट्रेट भी झूठ थे, कारागृह में पड़ा हुआ, हाथ में जंजीरें बंधा हुआ, वह भी झूठ था, वह सांप भी झूठ था। लेकिन झूठ - झूठ में थोड़ा फर्क था, सपने - सपने में थोड़ा फर्क था । उस सांप ने काटा- - हाथ में जंजीरें थीं तो अपने को बचा भी नहीं पाया, बचाता भी कैसे— काटा तो चीख निकल गयी। चीख निकली तो नींद टूट गयी ।
ऐसा ही समझना । साधना भी उतना ही स्वप्न है जितना संसार । पर स्वप्न - स्वप्न भेद है। अगर साधना को काटने दिया तो चीख निकल जाएगी। उसी चीख में जागरण हो जाएगा। हां, जागकर तो वह भी झूठ हो गया सांप, जागकर तो वह भी उतना ही असत्य हो गया। पहले सांप ने जेल के सपने को खाया, मजिस्ट्रेट के सपने को खाया, कैदी के सपने को खाया और फिर अंततः सांप अपने को भी खाकर मर गया, उसने आत्महत्या कर ली।
संन्यास पहले संसार को मिटा देता है, और फिर स्वयं आत्मघात कर लेता है और मिट जाता है। संन्यास कोई आखिरी बात नहीं है, मध्य की बात है। जोड़ने वाली बात है। संन्यास एक उपाय है, बस, इससे ज्यादा नहीं है। और उपाय की भी इसीलिए जरूरत है कि हम कहीं उलझे हैं । न उलझे होते तो उपाय की भी कोई जरूरत न थी ।
तो खयाल रखना, दोनों ही असत्य हैं। इसलिए गृहस्थी से निकलकर संन्यस्त में इस तरह मत उलझ जाना जैसे गृहस्थी में उलझे थे । ध्यान तो यही रखना कि एक दिन इससे भी जाग जाना है। यह स्मरण बना ही रहे - एक दिन ध्यान से भी मुक्त जाना है । एक दिन जप-तप से भी मुक्त हो जाना है। एक दिन तो ऐसी घड़ी आनी है जहां सिर्फ बुद्धत्व रह जाए, शुद्ध दीया जलता रह जाए, जरा भी धुआं न हो, कुछ और शेष न रह जाए। शून्य में जलती हो ज्योति, उसका कोई रूप-रंग न रहे, कोई आकृति न रहे, कोई ढंग न रहे। सब कोटियों के पार सत्य का आवास है । उस सत्य को ही हम निर्वाण कहते हैं।
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