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आदमी अकेला है
कश्तियां तट की अब उद्दाम तरंगों के बीच शीर्ष मस्तूल हैं शायद तुम्हें मालूम न हो फूल की शक्ल-से ये छद्म सुदर्शन चेहरे विष-बुझे शूल हैं शायद तुम्हें मालूम न हो देह मंदिर है तपोवन है मेरा अंतस्तल आर्य हम मूल हैं
शायद तुम्हें मालूम न हो हमें मालूम भी नहीं है कि क्या हो रहा है, क्या चल रहा है। जहां हमें सौंदर्य दिखायी पड़ता है, वहां आखिर में हम विष-बुझे तीर ही पाते हैं। जहां धन दिखायी पड़ता है, वहां कुछ हाथ नहीं लगता, आखिर में राख हाथ लगती है। क्या हो रहा है? कैसा जीवन चल रहा है? कहां जा रहे हैं? जिसको हम ताज समझकर सिर पर रखे हैं, वह सब धूल सिद्ध होती है। और हमारे भीतर छिपा बैठा है हमारा श्रेष्ठ रूप
देह मंदिर है तपोवन है मेरा अंतस्तल आर्य हम मूल हैं
शायद तुम्हें मालूम न हो और भीतर, हमारे भीतर वह श्रेष्ठ, चैतन्य, आर्य-आर्य का मतलब हिंदू नहीं—आर्य का मतलब हमारे भीतर जो श्रेष्ठता है। हम अनार्य बने बैठे हैं। प्रेय को खोजा तो अनार्य बन जाते हो, श्रेय को खोजा तो आर्य बन जाते हो।
आखिरी सूत्र, उसके पहले की घटना
भगवान के जेतवन में विहरते समय एक अनागामी स्थविर मरकर शुद्धावास ब्रह्मलोक में उत्पन्न हए। मरते समय जब उनके शिष्यों ने पूछा, क्या भंते, कुछ विशेषता प्राप्त हुई है? तब निर्मलचित्त स्थविर ने यह सोचकर कि यह भी क्या कोई उपलब्धि है या विशेषता है, चुप्पी ही साधे रखी। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके शिष्य रोते हुए भगवान के पास जाकर उनकी गति पूछे। भगवान ने कहा, भिक्षुओ, रोओ मत, वह मरकर शुद्धावास में उत्पन्न हुआ है। भिक्षुओ, देखते हो, तुम्हारा उपाध्याय कामों से रहित चित्त वाला हो गया है, जाओ खुशी मनाओ।
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