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एस धम्मो सनंतनो
मरणधर्मा तो मरेगा ही। जो अमरणधर्मा था, जो अमृत था, जो नहीं मरता है, जो शाश्वत है, सनातन है, तूने उससे जरा भी पहचान न की। और तू भी मरेगा। तो जल्दी कर, अपने भीतर ही पहचान कर ले, नहीं तो कहीं तू भी यह न सोचते रहना कि तू देह है, शरीर है, मन है-नहीं तो फिर तड़फेगा। इस अवसर को चूक मत। इस मौके को ध्यान का एक उपाय बना ले। अपने को पहचानने की कोशिश कर, तेरे भीतर भी वह है जो कभी नहीं मरता है। उसको पहचानते ही तू बेटे के भीतर भी जो कभी नहीं मरता उसको पहचान लेगा। और दुख के पार होने का एक ही उपाय है कि मृत्यु के पार हमें कुछ दिखायी पड़ जाए, अन्यथा हम दुख से कभी मुक्त नहीं हो सकते हैं।
फिर बुद्ध ने कहा, नष्ट हो जाने वाला ही नष्ट हुआ, मरने वाला ही मरा। उपासक, किसी को प्रिय बनाओगे तो शोक और भय उत्पन्न होता ही है। अशोक होना है, तो प्रिय न बनाओ, अप्रिय न बनाओ। राग के संबंध न जोड़ो। जीवन को बोध में लगाओ, राग में नहीं। जागने में लगाओ, निद्रा और तंद्रा में नहीं।
ऐसी परिस्थिति में बुद्ध ने ये सूत्र कहे
पियतो जायते सोको पियतो जायते भयं। पियतो विप्पमुत्तस्स नत्थि सोको कुतो भयं ।।
'प्रिय से शोक उत्पन्न होता है, प्रिय से भय उत्पन्न होता है। प्रिय से मुक्त पुरुष को शोक नहीं है, फिर भय कहां?'
तण्हाय जायते सोको तण्हाय जायते भयं । तण्हाय विष्पमुत्तस्स नत्थि सोको कुतो भयं ।।
'तृष्णा से शोक उत्पन्न होता है, तृष्णा से भय उत्पन्न होता है। तृष्णा से मुक्त हुए पुरुष को शोक नहीं है, फिर भय कहां?'
जीवन में दुख और भय एक साथ जुड़े हैं। जिस चीज से हमें भय उत्पन्न होता है, उसी से हमें शोक उत्पन्न होता है। जैसे मृत्यु हमें भयभीत करती है, तो मृत्यु से ही हमें शोक उत्पन्न होता है। और जब तक मृत्यु हमें भयभीत करती है, तब तक मृत्यु से शोक उत्पन्न होता रहेगा। आज बेटा मरा है, कल बेटी मरेगी, परसों पत्नी मरेगी, नरसों तुम भी मरोगे, और हर बार दुख घना होगा, दुख घना होगा; रोज-रोज दुख घना होता जाता है।
छोटे बच्चे जीवन में कुछ और क्या कर पाते हैं। सिर्फ दुख की पर्ते इकट्ठी करते चले जाते हैं और बूढ़े होते जाते हैं। जैसे-जैसे दुख पर पर्ते जमती जाती हैं वैसे-वैसे
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