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ध्यान की खेती संतोष की भूमि में
जाएं-सब खींची लकीरें, कि मैं हिंदू, कि मैं मुसलमान, कि मैं ब्राह्मण, कि मैं पुरुष, कि मैं स्त्री, कि मैं धनी, कि मैं त्यागी, सब लकीरें हैं—सब लकीरें जब मिट जाएं, जब कोरा कागज तुम्हारे भीतर हो जाए, प्रपंचरहित, कोई उपद्रव तुम्हारे भीतर न रह जाए, शून्य विराजमान हो जाए।
संखारा सस्सता नत्थि नत्थि बुद्धानमिज्जितं।।
संस्कार शाश्वत नहीं हैं, सुभद्र, और बुद्धों का इंगित नहीं होता। यह बड़ी अदभुत बात कही बुद्ध ने
नत्थि बुद्धानमिजितं।
'बुद्धों का कुछ अता-पता नहीं होता।'
तुम अगर चाहो भी तो तुम बुद्धों को खोज नहीं सकते। उनको खोजना संभव नहीं है। उनका कोई अता-पता नहीं होता। ___ यह बुद्ध ने जो बात कही, अंतिम, कि अब देह के खो जाने के बाद तुम मुझे खोजना चाहोगे तो खोज न सकोगे। जब तक संस्कार थे, तब तक मेरा अता-पता था। देह थी मेरी, मन था मेरा, तब तक मेरा अता-पता था। तुम कह सकते थे, बुद्ध इस समय कहां हैं? क्या हैं? कौन हैं? किस रूप में, किस वय में, स्त्री कि पुरुष, आदमी कि देव? लेकिन अब मेरा सब अता-पता खो जाएगा। अब मैं महाशून्य के साथ एक होने जा रहा हूं।
'बुद्धों का कोई अता-पता नहीं होता।'
इसलिए कोई उनकी तरफ इंगित नहीं कर सकता कि वे यहां हैं। यह तो ठीक जो भगवान की परिभाषा होती है, वही बुद्ध की परिभाषा है। भगवान का कोई अता-पता नहीं। तुम यह नहीं कह सकते कि भगवान कहां है। तुम इतना ही कह सकते हो, भगवान कहां नहीं है! इंगित नहीं कर सकते। या तो सब कहीं है, या कहीं भी नहीं है। इशारा नहीं हो सकता।
संखारा सस्सता नत्थि नत्थि बुद्धानमिञ्जितं।
बुद्ध ने कहा, अब संस्कारों से छुटकारा हो गया, आखिरी संस्कार छूटा जा रहा है, आखिरी लकीर हाथ से छुटी जा रही है, अब इसके आगे मेरा कोई अता-पता न होगा। अब मैं महाशून्य में जा रहा हूं। मैं उस आकाश में जा रहा हूं जहां कोई पदचिह्न नहीं होते। मैं उस अंतर-आकाश में जा रहा हूं, जहां बुद्धत्व फलता है, केवल जहां
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