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एस धम्मो सनंतनो
समणो नत्थि बाहिरे ।
जो बहिर्मुखी है, एक्स्टॉवर्ट, वह कभी ज्ञान को उपल्बध नहीं होता। यह मेरा अर्थ है।
बौद्धों का तो अब तक का अर्थ यही रहा है कि बुद्ध-शासन के बाहर कोई ज्ञान को उपलब्ध नहीं होता । यह बात तो बड़ी ओछी है। फिर महावीर ज्ञान को उपलब्ध नहीं होते। फिर कृष्ण ज्ञान को उपलब्ध नहीं होते। फिर क्राइस्ट, मोहम्मद, जरथुस्त्र ज्ञान को उपलब्ध नहीं होते। फिर तो यह बड़ी संकीर्ण बात हो जाएगी। बुद्ध ऐसा वचन बोलेंगे, यह असंभव है।
इसलिए मैं इस अर्थ को इनकार करता हूं। मैं अर्थ करता हूं
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समणो नत्थि बाहिरे ।
बाहर घूमती चेतना, बाहर - बाहर जाती चेतना, कभी ज्ञान को उपल्बध नहीं होती। अंतर्यात्रा पर जो जाता है, वही ज्ञान को उपलब्ध होता है, वही श्रमण, वही समाधि को पाता है।
'लोग प्रपंच में लगे रहते हैं और जो ज्ञान को उपलब्ध हो गया वह प्रपंचरहित हो जाता है ।'
'आकाश में पथ नहीं... ।'
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आकासे च पदं नत्थि समणो नत्थि बाहिरे । संखारा सस्सता नत्थि...
संस्कार का अर्थ होता है, हमारे ऊपर जो-जो प्रभाव पड़े हैं, संस्कार, कंडीशनिंग। उस आदमी ने पूछा है, क्या संस्कार शाश्वत होते हैं ? जो हम पर प्रभाव पड़े हैं, वे सदा रहने वाले हैं ?
बुद्ध कहते हैं, नहीं, जो भी प्रभाव हैं, वे पानी पर खींचे गए प्रभाव हैं। जैसे पानी पर कोई लकीरें खींच दे। वे खींचते-खींचते मिट जाती हैं। या कोई रेत पर लकीरें खींचे; खींच देता है, थोड़ी देर टिकती हैं, फिर हवा आती है तब मिट जाती हैं।
तुम कहोगे, कोई पत्थर पर लकीरें खींच दे? वे भी समय आने पर मिट जाती हैं। कोई लोहे पर लकीरें खींच दे, वे भी एक दिन समय आने पर मिट जाती हैं। कोई हीरे पर लकीरें खींच दे, तो शायद करोड़ों वर्ष रहें, लेकिन वे भी समय आने पर मिट जाती हैं। कोई संस्कार शाश्वत नहीं है। यहां जो भी प्रभाव है, अशाश्वत है। और इसलिए प्रभाव के बाहर हो जाना ही शाश्वत को पाना है। सब लकीरें मिट
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