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________________ एस धम्मो सनंतनो काफी चिल्लाने की, मकानों के मुंडेर पर चढ़कर चिल्लाने की जरूरत है। उसे सब तरफ से हिलाने की जरूरत है, शायद जग जाए। सौ में से कभी कोई एकाध जगेगा, लेकिन वह भी बहुत है। क्योंकि एक जग जाए तो फिर एक और किसी एक को जगा देगा। ऐसे ज्योति से ज्योति जले। ऐसे दीए से दीए जलते जाते हैं । और बोधि की परंपरा संसार में चलती रहती है। और बुद्ध ने ठीक कहा कि इसलिए भी बोल रहा हूं कि नहीं बोला, ऐसा दोष मुझ पर न लगे। नहीं सुना, यह तुम्हारी बात रही, यह तुम जानो; मैं नहीं बोला, ऐसा दोष न लगे । तब आनंद ने पूछा, भंते, आपके इतने सुंदर उपदेश को भी ये सुन क्यों नहीं रहे हैं ? सुंदर उपदेश या असुंदर उपदेश तो सुनने वाले की दृष्टि है। आनंद को लग रहा है सुंदर, उसके हृदय - कमल खिल रहे। यह बुद्ध की मधुर वाणी, ये उनके शब्द, उसके भीतर वर्षा हो रही है, अमृत की वर्षा हो रही है। वह चकित है कि इतना सुंदर उपदेश और ये मूढ़ बैठे हैं, कोई झपकी खा रहा है, कोई जम्हाई ले रहा है, किसी का मन कहीं भाग गया है, किसी का मन सोच रहा है कि यह ठीक है कि नहीं है, गलत है कि सही है, शास्त्र में लिखा है उसके अनुकूल है या नहीं, कोई विवाद में पड़ा है! एक भी सुन नहीं रहा है। इतना सुंदर उपदेश ! ये सुन क्यों नहीं रहे हैं ? भगवान ने कहा, आनंद, श्रवण सरल नहीं । श्रवण बड़ी कला है। आते-आते ही आती है। राग, द्वेष, मोह और तृष्णा के कारण धर्म-श्रवण नहीं हो पाता। पूर्वाग्रहों के कारण धर्म-श्रवण नहीं हो पाता। भय के कारण धर्म-श्रवण नहीं हो पाता । पुरानी आदतों के कारण धर्म-श्रवण नहीं हो पाता। लेकिन सबके मूल में राग है। राग की आग के समान आग नहीं है। इसमें ही संसार जल रहा है। इसमें ही मनुष्य का बोध जल रहा है। उसके कारण ही लोग बहरे हैं, अंधे हैं, लूले हैं, लंगड़े हैं। और तब उन्होंने ये गाथाएं कहीं 348 नत्थि रागसमो अग्गि नत्थि दोससमो गहो । नत्थि मोहसमं जालं नत्थि तण्हासमा नदी ।। सुदस्सं वज्जमञ्जेसं अत्तनोपन दुदृशं । परेसं हि सो वज्जानि ओपुणात यथाभुसं । अत्तनोपन छादेति कलिं व कितवा सठो ।। परवज्जानुपस्सिस्स निच्चं उज्झानसञ्ञिनो। आसवातस्स बड्ढन्ति आरा सो आसवक्खया ।। 'राग के समान आग नहीं, द्वेष के समान ग्रह नहीं, मोह के समान जाल नहीं
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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