________________
ध्यान की खेती संतोष की भूमि में
यहां सुनने वाला तो कोई है ही नहीं। भगवान ने कहा, मैं संभावनाओं से बोल रहा हूं। जो हो सकता है, जो हो सकते हैं, उनसे बोल रहा हूं। मैं बीज से बोल रहा हूं।
और मैं बोल रहा हूं इसलिए भी कि मैं नहीं बोला, ऐसा दोष मेरे ऊपर न लगे। रही सुनने वालों की बात, सो ये जानें। सुन लें, इनकी मर्जी। न सुनें, इनकी मर्जी। फिर जबर्दस्ती कोई बात सुनायी भी कैसे जा सकती है!
बुद्ध ने कहा, मैं संभावनाओं से बोल रहा हूं।
बुद्ध का एक बड़ा शिष्य बोधिधर्म चीन गया तो नौ साल तक दीवाल की तरफ मुंह करके बैठा रहा। वह लोगों की तरफ मुंह नहीं करता था। अगर कोई कुछ पूछता भी तो दीवाल की तरफ ही मुंह रखता और वहीं से जवाब दे देता। लोग कहते कि महाराज, बहुत भिक्षु देखे, भारत से और भी भिक्षु आए हैं, मगर आप कुछ अनूठे हैं। यह कोई बैठक का ढंग है! कि हम जब भी आते हैं, तब आप दीवाल की तरफ मुंह किए रहते हैं। शायद बोधिधर्म ने पाठ सीख लिया होगा। उसने कहा है कि इसीलिए कि मैं तुम्हारा अपमान नहीं करना चाहता। क्योंकि जब मैं तुम्हारी आंखों में देखता हूं, मुझे दीवाल दिखायी पड़ती है। उससे कहीं मैं कुछ कह न बैलूं, सो मैं दीवाल की तरफ देखता रहता हूं।
वह आदमी जरा तेज-तर्रार था। उसने कहा कि जब कोई आदमी आएगा, जिसकी आंखों में मैं देख सकू और मैं पाऊं कि दीवाल नहीं है, तब मैं देखूगा। उसके पहले नहीं।
नौ साल बैठा रहा। तब उसका एक पहला शिष्य आया-हुईकोजो। और हुईकोजो पीछे खड़ा रहा-चौबीस घंटे खड़ा रहा, हुईकोजो कुछ बोला ही नहीं। बर्फ गिर रही थी, उसके हाथ-पैर पर बर्फ जम गयी, वह ठंड में सिकुड़ रहा है, वह खड़ा ही रहा, वह बोला ही नहीं। चौबीस घंटे बीत गए और बोधिधर्म बैठा रहा, दीवाल की तरफ देखता ही रहा, देखता ही रहा। आखिर बोधिधर्म को ही पूछना पड़ा कि महानुभाव, मामला क्या है? क्यों खड़े हैं? क्या मुझे लौटना पड़ेगा? क्या मुझे लौटकर तुम्हारी तरफ देखना पड़ेगा? तो हुईकोजो ने कहा, जल्दी करो, नहीं तो पछताओगे। और हुईकोजो ने अपना एक हाथ काटकर उसको भेंट कर दिया। यह एक सबूत, कि मैं कुछ कर सकता हूं। और दूसरा सबूत मेरी गर्दन है। __ कहते हैं, बोधिधर्म तत्क्षण घूम गया। उसने कहा, तो तुम आ गए। तुम्हारी मैं प्रतीक्षा करता था। तुम्हारे लिए ही दीवाल को देख रहा था।
ऐसा अनुभव मुझे रोज होता है। आनंद की बात ठीक ही लगती है कि भगवान आप किससे बोल रहे हैं। यहां सुनने वाला तो कोई है ही नहीं। मैं भी संभावनाओं से बोल रहा हूं। जो हो सकता है, उससे बोल रहा हूं। जो हो गया है, उससे तो बोलने की जरूरत भी नहीं। वह तो बिन बोले भी समझ लेगा। वह तो चुप्पी को भी समझ लेगा। वह तो मौन से भी अर्थ निकाल लेगा। जो नहीं हुआ है अभी, उसी के लिए
347