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________________ ध्यान की खेती संतोष की भूमि में नहीं होता। क्योंकि कमी कैसे पूरी हो सकती है! कमी तो स्वीकार करने से विसर्जित होती है। इसीलिए जब तक कोई व्यक्ति धार्मिक जगत में प्रवेश नहीं करता, उसकी हीनता नहीं मिटती। वह लाख उपाय कर ले, धन इकट्ठा कर ले, पद इकट्ठा कर ले, प्रतिष्ठा बना ले, कमी नहीं मिटती। __ तो बुद्ध ने कहा, हीनभाव ही श्रेष्ठता का दावेदार बनता है। जो श्रेष्ठ हैं, उन्हें तो अपने श्रेष्ठ होने का पता भी नहीं होता है। वही श्रेष्ठता का अनिवार्य लक्षण भी है। साधु को पता चले कि मैं साधु, कि मैं साधु, कि मैं साधु, तो यह घाव है, यह असलियत नहीं। तुमने कभी खयाल किया, स्वास्थ्य का तुम्हें कभी पता चलता है ? बीमारी का पता चलता है। सिर में दर्द है तो पता चलता है। जब सिर में दर्द नहीं होता तब सिर का पता चलता है? अगर दर्द बिलकुल नहीं है तो सिर का पता चलेगा ही नहीं। पैर में कांटा गड़ा तो पैर का पता चलता है, कांटा नहीं है तो पैर का पता नहीं। जब तुम बीमार होते हो तब देह का पता चलता है। _इसलिए आयुर्वेद में स्वास्थ्य की परिभाषा बड़ी महत्वपूर्ण है। एलोपैथी के पास वैसी कोई परिभाषा नहीं है। अगर तुम एलोपैथी से पूछो कि स्वास्थ्य की क्या परिभाषा है, तो वह कहता है, बीमारी न हो तो स्वास्थ्य। यह बड़ी नकारात्मक परिभाषा हुई। बीमारी से स्वास्थ्य की परिभाषा! बीमारी न हो! लेकिन आयुर्वेद कहता है, स्वास्थ्य का अर्थ है, देह का पता न चले, विदेह भाव रहे। यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है, देह का पता न चले तो स्वास्थ्य। क्योंकि देह का पता बीमारी में चलता है। ठीक-ठीक स्वस्थ आदमी विदेह हो जाता है। इसलिए हमने जनक को विदेह कहा है। अगर परिपूर्ण स्वस्थ हो गए तो देह का बिलकुल ही पता नहीं चलेगा, कि देह है भी, कि मैं देह हूं, ऐसा भी पता नहीं चलेगा। सिर दर्द के कारण सिर का पता चलता है, कांटे के कारण पैर का पता चलता। • तुमने देखा, श्वास में तकलीफ हो तो श्वास का पता चलता, नहीं तो श्वास चल रही है वर्षों से, उसका पता ही नहीं चलता। पेट में पाचन होता है, इतना काम चलता है-खून बनता, मांस-मज्जा बनती-पता ही नहीं चलता। हां, जरा सी तकलीफ हो जाए तो पता चलता है। बुद्ध कहते हैं, श्रेष्ठता का यह अनिवार्य लक्षण है कि उसका पता न चले। साधु वही, जिसे साधु होने का पता न चले। सत्य उसी को मिला, जिसे मिलने का भी पता न चले। सहज हो। __यह भिक्षु...बुद्ध सदा ऐसा कहते थे, जब भी किसी का प्रश्न उठता था तो वह सदा उसके अतीत जन्मों को भी खयाल में लाते थे। बुद्ध की अनिवार्य प्रक्रियाओं में वह भी एक प्रक्रिया थी। जब भी वह किसी आदमी को देखते, तो गौर से उसकी 339
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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