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एस धम्मो सनंतनो
आकासे च पदं नत्थि समणो नत्थि बाहिरे। पपञ्चाभिरता पजा निप्पपञ्चा तथागता||२११।।
आकासे च पदं नत्थि समणो नत्थि बाहिरे। संखारा सस्सता नत्थि नत्थि बुद्धानमिञ्जितं ।।२१२।।
सत्र -संदर्भ-पहला दृश्यः
भगवान जेतवन में विहरते थे। पास के किसी गांव से आए एक युवक ने संन्यास की दीक्षा ली। वह सबकी निंदा करता था। कारण हो सब तो चूकता ही नहीं था, कारण न हो तब भी निंदा करता था। कारण न हो तो कारण खोज लेता था। कारण न मिले तो कारण निर्मित कर लेता था। कोई दान न दे तो निंदा करता और कोई दान दे तो कहता–अरे, यह भी कोई दान है! दान देना सीखना हो तो मेरे परिवार से सीखो। वह अपने परिवार की प्रशंसा में लगा रहता। शेष सारे संसार की निंदा, अपने परिवार की प्रशंसा, यही उसका पूरा काम था। अपनी जाति, अपने वर्ण, अपने कुल, सभी की अतिशय प्रशंसा में लगा रहता। उसके अहंकार का कोई अंत न था। शायद इसीलिए वह संन्यस्त भी हुआ था।
एक बार कुछ भिक्षु उसके गांव गए तो पाया कि जैसे वह व्यर्थ ही दूसरों की निंदा करता था, वैसे ही व्यर्थ ही अपने कुल-परिवार की प्रशंसा भी करता था। उसके परिवार की तो कोई स्थिति ही न थी। वह तो अत्यंत हीनवृत्तियों वाले परिवार से आया था। _भिक्षुओं ने यह बात भगवान को कही। भगवान ने कहा, हीनभाव ही श्रेष्ठता का दावेदार बनता है। जो श्रेष्ठ हैं, उन्हें तो अपने श्रेष्ठ होने का पता भी नहीं होता है। वही श्रेष्ठता का अनिवार्य लक्षण भी है। फिर यह भिक्षु न केवल इसी समय ऐसा करता घूमता है, पहले भी ऐसा ही करता था-और-और जन्मों में भी ऐसा ही करता था। जन्म-जन्म इसने ऐसे ही गंवाए हैं। जितनी शक्ति इसने दूसरों की निंदा और स्वयं की प्रशंसा में व्यय की है, उतनी शक्ति से तो यह कभी का निर्वाण का अधिकारी हो गया होता। उतनी शक्ति से तो न-मालूम कितनी बार भगवत्ता उपलब्ध कर ले सकता था। भिक्षुओ, इससे सीख लो। दूसरों की निंदा, दूसरों का नहीं, अपमा ही अहित करती है। यह दूसरों के बहाने अपनी ही छाती में छुरा भोंकना है। अपने पर दया करो और अपने अकल्याण से बचो, क्योंकि मनुष्य अपना ही शत्रु और अपना ही मित्र है।
उस युवक ने अत्यंत क्रोध से पूछा, कोई दान न दे तो हम कैसा भाव रखें? 326